Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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चौथा भव किरणवेग
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निकट पहुँच गया। उसे देखते हो उसका वैर भड़का । उसने उड़ कर हाथी के पेट पर डंस लिया । गजराज के शरीर में विष की ज्वाला धधकने लगी । अपना मृत्युकाल निकट जान कर उसने आलोचनादि कर के अनशन कर लिया और धर्मध्यान युक्त काल कर के सहस्रार देवलोक में १७ सागरोपम आयुष्य वाला महद्धिक देव हुआ ।
वरुणा हथिनी भी धर्म साधना करती हुई मृत्यु पा कर ईशान देवलोक में समृद्धि - शाली अपरिग्रहिता देवी हुई । वह रूप सौंदर्य और आकर्षण में अन्य बहुत-सी देवियों में श्रेष्ठ थी । सभी देव उसे चाहते थे। परन्तु वह किसी को नहीं चाहती थी । उसका मन केवल गजेन्द्र के जीव ( जो सहस्रार विमान में देव था - ) में ही लगा हुआ था । गजेन्द्र देव ने भी उसे देखा और उसे अपने विमान में ले गया और उस स्थान के अनुरूप उसके साथ स्नेहपूर्वक काल व्यतीत करने लगा ।
कुक्कुट सर्प ने बहुत पाप कर्म बाँधा और मृत्यु पा कर पाँचवीं नरकभूमि में सतरह सागरोपम की स्थिति वाला नारक हुआ । उसका काल अत्यन्त दुःखपूर्वक व्यतीत होने लगा ।
चौथा भव किरणवेग
पूर्व - विदेह स्थित सुकच्छ विजय के वैताढ्य पर्वत पर तिलका नाम की समृद्ध नगरी थी । विद्याधरों का स्वामी विद्युद्गति वहाँ का अधिपति था । आठवें स्वर्ग से च्यव कर गजेन्द्र का जीव कनकतिलका महारानी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। राजकुमार का नाम “किरणवेग' रखा | महाराज विद्युद्गति ने संसार से विरक्त हो कर युवराज किरणवेग को राज्याधिकार दे दिये और महात्मा श्रुतसागरजी के पास निग्रंथ - प्रव्रज्या धारण कर ली । महाराज किरणवेग न्याय-नीतिपूर्वक राज्य करने लगे और अनासक्त रहते हुए जीवन व्यतीत करने लगे । उनकी पद्मावती रानी की कुक्षि से एक तेजस्वी पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम 'किरणतेज' रखा । वह रूप, कला और बलबुद्धि में पिता के समान था। एक बार मुनिराज सुरगुरुजी वहाँ पधारे। उनके उपदेश से प्रभावित हो कर महाराजा किरणवेग राज्याधिकार पुत्र को दे कर दीक्षित हो गये और तप-संयम से आत्मा को पवित्र करने लगे । गीतार्थ होने के पश्चात् उन्होंने गुरु आज्ञा से एकल-विहार प्रतिमा अंगीकार की और आकाश-गामिनी विद्या से वैताढ्य पर्वत के निकट हेमगिरि पर दीर्घ तपस्या अंगीकार कर ध्यानस्थ हो गए । कुक्कुट सर्प का जीव पाँचवीं नरक का १७ सागरोपम प्रमाण आयु पूर्ण
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