Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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रानी के साथ गजारूढ़ हो कर श्मशान भूमि की ओर चले । लोगों में यह बात फैल गई कि महाराजा और महारानी मरने के लिए श्मशान जा रहे हैं । नागरिक जन अपने प्रिय महाराजा के असमय मरण -- आत्मघात -- - से शोकाकूल हो, पीछे-पीछे चलने लगे । राजा की कुलदेवी आकृष्ट हुई। उसने वैक्रिय से एक भेड़ और सगर्भा भेड़ी का रूप बनाया । देवी जान गई कि राजा पशुओं की भाषा जानता है । उसने भेड़ी से कहलवाया -- " ये जौ के हरे पुले रखे हैं, इनमें से एक मेरे लिये ला दो ।" भेड़ ने कहा--" ये पुले तो राजा के घोड़े के लिये हैं । यदि मैं इनमें से लेने लगूं तो पास खड़े रक्षक मुझे वहीं समाप्त कर दें । नहीं, में ऐसा नहीं कर सकता ।"
"यदि तू ऐसा नहीं करेगा, तो मैं मर जाऊँगी " - - भेड़ी बोली ।
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कोई बात नहीं, तू मर जायगी, तो में दूसरी ले आऊँगा । परन्तु तेरे लिये मरने को नहीं जाऊँगा ।"
" अरे वाह रे प्रेमी ! देख राजा कैसा प्रेमी है, जो अपनी प्रियतमा का हठ निभाने के लिये मरने को भी तत्पर हो गया । तू तो ढोंगी है' - भेड़ी ने कहा । 'राजा मूर्ख है । बहुत-सी रानियाँ होते हुए
भी एक के पीछे मरने को तत्पर
हो गया। मैं ऐसा मूर्ख नहीं हूँ "भेड़ ने कहा ।
भेड़ - भेड़ी की बात ने राजा को सावधान कर दिया । उसने भेड़ और भेड़ी के गले में हार डाले और रानी से स्पष्ट कह दिया--" मैं तुम्हारे हठ के कारण मरूँगा नहीं । तुम्हारी इच्छा हो वह करो।" और वह राजभवन में लौट आया ।
चक्रवर्ती के भोजन का दुष्परिणाम
तीर्थंकर चरित्र भाग ३
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किसी पूर्व परिचित ब्राह्मण ने महाराजा के सामने याचना की--" मुझे और मेरे परिवार को आपके लिये बनाया हुआ भोजन करवाने की कृपा करें ।" नरेश ने कहा --
हितकारी नहीं होगा । तुम उसे
'ब्राह्मण ! तू और कुछ माँग ले । मेरा भोजन तेरे लिये
पचा नहीं सकोगे और अनर्थ हो जायगा ।'
"नहीं महाराज ! टालिये नहीं । इस जीवन में आप देना चाहें, तो आपका भोजन ही दीजिये । बस, एक
बस यही कामना शेष है । यदि बार और कुछ नहीं ।"
ब्राह्मण का अत्याग्रह टाला नहीं जा सका । ब्राह्मण परिवार ने डट कर भोजन किया,
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