Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० पार्श्वनाथजी
इस जम्बूद्वीप के भरत-क्षेत्र में पोतनपुर' नाम का समृद्ध नगर था । 'अरविन्द' नरेश वहाँ के शासक थे। वे जोवा नीवादि तत्त्वों के ज्ञाता एवं धर्मरसिक थे । 'विश्वभूति' नामक पुरोहित नरेश का विश्वासपात्र और प्रिय था। वह भी तत्त्वज्ञ श्रावक था। उनके 'कमठ' और 'मरुभूति' नाम के दो पुत्र थे। कमठ के 'वरुणा' और मरुभूति के 'वसुन्धरा' नामक पत्नी थी। वह रूप-लावण्य सम्पन्न थी। दोनों बन्धु कलाविद् थे और स्नेहपूर्वक व्यवसाय एवं गृहकार्य करते थे। विश्वभूति गृह-त्याग कर गुरु के समीप पहुँचा। उसने संयमपूर्वक तप की आराधना की और अनशन कर के प्रथम स्वर्ग में देव हुआ। उनकी पत्नी पतिवियोग से संतप्त हो कर संसार से विमुख हुई और धर्म-चिन्तन करती हुई सद्गति पाई । विश्वभूति की मृत्यु के बाद ज्येष्ठ पुत्र ‘कमठ,' पुरोहित हुआ और राज्य-सेवा करने लगा। 'मरुभूति' संसार की असारता का चिन्तन करता हुआ भोग से विमुख हुआ और धर्मस्थान में जा कर पौषधादि धर्म में तत्पर रहने लगा। उसकी भोगविमुखता से उसकी रूपमती युवा पत्नी की काम-लालसा अतृप्त रही । मरुभूति की विषयविमुखता के कारण वह विषय-सुख से वंचित ही रही थी । यौवन के उभार ने उसे विचलित कर दिया। उधर कमठ स्वच्छन्द, विषयलोलुप और दुराचारी बन गया। पर-स्त्री गमन और द्युतक्रीड़ा उसके विशेष व्यसन थे। भ्रातृपत्नी वसुन्धरा पर उसकी दृष्टि पड़ी। तो उसकी मति विकृत हो गई। अवसर पा कर उसने उसके सामने अपनी दुरेच्छा व्यक्त की। यद्यपि वसुन्धरा भी कामासक्त थी, परन्तु ज्येष्ठ को श्वसुर के समान मानती थी। इसलिये उसने अस्वीकार कर दिया। कमठ के अति आग्रह और आलिंगनादि से प्रेरित हो कर वह वशीभूत हो गई। दोनों की पापलीला चलने लगी । मरुभूति साधु तो नहीं हुआ
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