Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र भाग ३ क ककककककककककककककककककककककक ककककककककककककक्कर
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"हे भिक्षु ! तुम मेरे विषयानन्द के उत्कृष्ट भोग से अपरिचित हो । मैं देवांगना के समान अत्यन्त सुन्दर, सुघड़ एवं सलोनी रमणियों के मनोहर नृत्य और तदनुरूप वादिन्त्रों के सुरों से अत्यन्त आल्हादकारी मधुर आलापमय ग तों से आनन्द-विभोर हो कर, जिन उत्कृष्ट भोगों का अनुभव करता हूँ, उनके सुख को तो तुम जानों ही क्या ? अब तुम भी इन उत्कृष्ट भोगों का भोग कर के सुखी बनो । तुम्हारी यह युवावस्था कंचन के समान वर्ण वाली सुन्दर एवं सबल देह और भरपूर यौवन, ये सब भोग के योग्य है, योग के ताप में जला कर सय करने के लिये नहीं है । देव-दुर्लभ ऐसा उत्तम योग प्राप्त हुआ है । इसे व्यर्थ मत गवाओ"--योगी को भोगी बनाने के उद्देश्य से सम्राट ने कहा । ... "राजेन्द्र ! तुम्हारे ये सभी गीत विलाप रूप हैं । एक दिन इनकी परिणति रुदन के रूप में हो जाती है । ये तुम्हारे उत्कृष्ट कहे जाने वाले नाटक भी विडम्बना रूप है, याभूषण भाररूप और सभी काम-भोग दुःख के महान भण्डार के समान है । इनसे दुःख परम्परा बढ़ती है।" . "बन्धु ! कामभोग तो मोहमद में मत्त एवं अज्ञानी जीवों को ही प्रिय लगते हैं। इनकी प्रियता सूक्ष्म है और थोड़े समय की है। किन्तु दुःख महान है और चिरकाल तक रहने वाले हैं । जो महान् आत्मा, कामभोग से विरत हो कर संयम-चर्या में लीन रहते हैं, उन तपोधनी महात्मा को जो सुख मिलता है, वह स्थायी रहता है और उत्तम कोटि का होता है। ऐसा पवित्र सुख, भोपियों को नहीं मिलता।
"नरेन्द्र ! पूर्वभव में हम चाण्डाल जाति के मनुष्य के सभी लोग हमसे घृणा करते थे। हम उस दुःखपूर्ण मनुष्यभत्र की विडम्बना भी भुगत चुके हैं । परन्तु यहाँ हमें उत्तम मनुष्यभव प्राप्त हुआ है। यह हमारी उस उत्तम धर्मसाधना का फल है, जो हमने चाण्डाल के भव में की थी। अब इस भव में भी धर्म की उत्तम आराधना कर के दुःख के कारणों को नष्ट करना है । इसलिये तत्काल त्याग दो इन दुःखदायक भोगों को और निग्रंथ-धर्म स्वीकार कर के आराधक बनने में प्रयत्नशील बन जाा।"
"जो धर्माचरण नहीं करता, वह मत्यु के मुंह में जाने पर पछताना है शोक करता है और भयभीत रहता है । वह संकल्प-विकल्प करता रहता है और मृत्यु उसे इस प्रकार दबोच कर ले उड़ती है, जिस प्रकार मृग को सिंह अपने मुंह में दवा कर ले जाता है उस समय उसकी रक्षा न तो माता-पित्तादि सम्बन्धी कर सकते हैं, न धन-सम्पति और संन्य शक्ति बचा सकती है । यह जीव असहाय हो कर दुःख-सागर में डूब जाता है।"
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