________________ द्वितीय प्रस्तांचं . 43 और श्रीविजयको बड़ा हर्ष हुआ और ये एकबारगी कह उठे,-" अहा! झामके आगे कुछ भी असाध्य नहीं है" तदनन्तर केवलीको नमस्कार कर अमिततेजने कहा,-" हे प्रभो! यह तो कहिये, मैं भव्य हूँ या अभव्य ?' केवलीने कहा,-" हे राजन् ! आजसे नवें भव में तुम इस भरतक्षेत्रमें पांचवें चक्रवर्ती होगे और उस भवमें शान्तिनाथ नामसे सोलहवें तीर्थङ्कर कहलाओगे / उस समय इस श्रीविजयका जीव तुम्हारा पुत्र होगा और पहला गणधर बनेगा।” यह सुन, उन दोनोंहीने उनहीं केवलीसे समकित सहित श्रावकधर्म ग्रहण किया। अशनिघोष राजाने चित्तमें वैराग्य उत्पन्न हो जानेके कारण, अपने पुत्रको राज्यका भार दे, उन्हीं केवलीसे दीक्षा ग्रहण कर ली। श्रीविजय राजाकी माता स्वयंप्रभा देवीने भी बहुतसी स्त्रियोंके साथ-साथ उन्हीं बलभद्र मुनिसे चारित्र ग्रहण किया। इसके बाद श्रीविजय और अमिततेज अपने-अपने परिवारवर्गों के साथ मुनिको प्रणाम कर अपने-अपने घर चले गये और देवपूजा, गुरुसेवा तथा जपतप आदि धर्म-कार्यके द्वारा श्रावकधर्मका प्रकाश करते हुए समय विताना आरम्भ किया। . कुछ दिन बाद पुण्यात्मा राजा अमिततेजने पाँच रंगके रत्नों द्वारा एक जिनमन्दिर तैयार करवाया। उसमें जिनेश्वरकी सुन्दर प्रतिमाकी स्थापना कर, उसने उसके पासही एक सुन्दर पौषधशाला बनवायी। किसी समय उसी पौषधशालामें विद्याधरोंकी सभाके बीचमें बैठकर वह राजा धर्मोपदेश कर रहा था / उसी समय दो चारण-मुनि शाश्वत जिनेश्वरकी प्रतिमाकी वन्दना करते हुए चले जा रहे थे। वे उस जैनमन्दिरको देखकर वन्दना करनेके लिये वहाँ ठहर गये। उन्हें देख, राजा अमिततेजने उन्हें श्रेष्ठ आसनोंपर बैठाकर भक्तिपूर्वक उनकी वन्दना की। एक मुनिने कहा,-" हे राजा ! यद्यपि तुम अपने धर्मकी बातें जान गये हो, तथापि धर्मकी बातें कहना हमारा ही काम है।" इस. लिये सुनो,–“हे राजा! मनुष्यभव आदि सामग्रियोंको पाकर संसारका P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust