________________ 110 श्रीशान्तिनाथ चरित्र / धीन रहता हुआ जिनपालित क्रमशः अपनी नगरीमें आ पहुँचा, उसी प्रकार जीव अविरतिका त्याग कर, पवित्र चारित्रमें निश्चल हो रहता है और समस्त कर्मोंका क्षय कर थोडेही कालमें मोक्ष सुखका अधिकारी / होता है। इसलिये हे राजर्षि ! चारित्र अङ्गीकार करने बाद लोकमें मनको प्रवृत्त नहीं होने देना चाहिये।" .... गुरुके ऐसे वचन सुन, राजर्षि बड़े आदरसे अतिचारसे रहित संयमका पालन करने लगे। गुरुने रत्नमञ्जरीको साध्वी प्रवर्तिनीको सौंपा वे दोनों निर्मल तपस्या कर, मनोहर चारित्रका पालन कर, मोक्षपदको प्राप्त हए। . अमरदत्त-मित्रानन्द-कथा समाप्त। . .. इस प्रकार स्वयंप्रभ मुनिके मुंहसे धर्मदेशना श्रवणकर स्तिमितसागर राजाको बड़ा बोधप्राप्त हुआ। इसके बाद उन्होंने अपने पुत्र अनन्तवीर्यको राज्यपर स्थापित कर, कुमार अपराजितको युधराजकी पदवी प्रदान की और आप उन्हीं मुनीश्वरसे दीक्षा ग्रहण कर ली / उन्होंने ढूंढ़तासे दीक्षाका पालन तो किया, परन्तु अन्तमें मन-ही-मन संयममें कुछ विराधना कर दी, इसलिये वे मरकर अधोलोकमें भवनपतिजातिमें चमरेन्द्र नामक असुरोंके अधिपति हुए। . कुमार अपराजित और राजा अनन्तवीर्य राज्य करने लगे। इसी समय किसी विद्याधरसे उनकी मैत्री हो गयी। उस विद्याधरने उन्हें आकाशगामिनी आदि विद्याएँ सिखलायीं और उनकी साधनाकी विधि भी बतला दी। राजाके खर्वरी और चिलाती नामकी दो दासियाँ थीं। वे गीत और नाट्यकलामें बड़ी निपुण थीं। इसलिये उनके गीत नाट्यसे प्रसन्न रहनेवाले अपराजित और अनन्तवीर्य निरन्तर नाच-गानके ही रङ्ग में डूबे रहते थे / एक दिन वे दोनों भाई जिस समय गीत-नाट्यके रसमें डूबे हुए थे, उसी समय स्वेच्छाचारी नारद वहाँ आ पहुँचे / उस.समय नाचने गानेकी धुनमें पड़े हुए उन दोनों भाइयोंने खड़े होकर Cun Aaradhak Trst