________________ .. श्रीशान्तिनाथ चरित्र। . जिनचन्द्रका मन देवताके करते भी चलायमान नहीं हुआ। अन्तमें वह निरतिचारपनके साथ धर्मकी सेवा कर, स्वर्गको गया। वहाँ आकर वह क्रमशः मोक्ष प्राप्त करेगा। पौषध-व्रत-सम्बन्धी जिनचन्द्रकी कथा समाप्त / अब प्रभुने बारहवें अतिथि-संविभाग-व्रतकी बात करनी शुरू की / इस सिलसिले में पहले अतिथि किसे कहते हैं। इसके विषयमें उन्होंने कहा, "तिथिपर्वहर्षशोकास्त्यक्ता येन महात्मना / सत्वतिथि विजानीयः, परः प्राघूर्णको मतः॥१॥" अर्थात्--"जो महात्मा तिथि, पर्व, हर्ष, शोक आदिका त्याग कर चुका हो, उसे ही अतिथि जानना / इसके सिवा औरों को प्रार्णक-- पाहुना कहते हैं।" इस प्रकारके अतिथिका, न्यायोपार्जित द्रव्यसे बनाये हुए कल्प य देशकालोचित और पर्याप्त अन्न-व्यंजन आदि श्रेष्ठपदार्थों द्वारा श्री पूर्वक सत्कार करना ही अतिथि-संविभाग-व्रत कहलाता है / यह व्रत भक्तिपूर्वक सुसाधुके प्रति करनेसे बड़े पुण्यका कारण होता है / शूरपाल नामक राजाको पूर्वजन्ममें सुपात्रको दान करनेके प्रभावसे ही सुखसम्पत्ति प्राप्त हुई थी।" यह सुन, चक्रायुध राजाने कहा,–“हे भगवन् ! उस शूर राजाकी कथा कह सुनाइये / " तब श्रीशान्तिनाथ परमात्माने अब सी मधुर वाणीमें उसकी कथा कह सुनायी WEDDec98c98c9e.co9009 3) शूरपाल राजाकी कथा। F OR इसी भरतक्षेत्रमें श्रेष्ठ लक्ष्मीसे युक्त कांचनपुर नाम ले नगर है / कहा है, कि तथा साधुओंको P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust