Book Title: Shantinath Charitra Hindi
Author(s): Bhavchandrasuri
Publisher: Kashinath Jain

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Page 432
________________ षष्ट प्रस्ताव। . 407 "प्रत्यक्ष गुरवस्तुत्याः, परोने मिन्नबांधवाः / र कर्मान्ते दासाभृत्याश्च, पुत्रो नैव मृताः स्त्रियः // 1 // अर्थात्- गुरुजनों की प्रशंसा उनके सामने ही करनी चाहिये / मि और बान्धवोंकी प्रशंसा उनके परोक्षमें करनी चाहिये / दासों और भृत्योंकी प्रशंसायम करने के बाद करनी चाहिये / पुत्रकी प्रशंसा की नहीं करनी चाहिये और स्त्रियों की प्रशंसा तो उनके मरनेके बाद ही करनी उचित है / ' सके बाद उसके सभी आत्मीय वन अक्षतका पात्र लिये हुए अपनः हर्ष प्रकट करनेके निमित्त सेठारी आये। सेठने भी उनका उचित आदर-सत्कार कर उन्हें विदा किया। इसके बाद सौभाग्यमंजरी नामकी गणिका भी उन लोगोंसे मिलने आयी। उसे उचित आसनपर बिठाकर रत्नचूड़ने कहा,- “हे भद्रे ! तुम्हारे ही उपदेशसे मैंने देशान्तरमें जा, लक्ष्मी और स्त्री उपार्जन की है / " यह कह, उसे बहुतेरे वस्त्राभूषण दे, उसने उसे विदा किया। उस समय उसने कहा, "मैं राजाकी आज्ञा लेकर तुम्हारी प्यारी होकर रहूँगी / " यह कह, वह अपने घर चली गयी। इसके बाद रत्नचूड़, उत्तमोत्तम उपहार लिये हुए, उस नगरके राजाको प्रणाम करने गया। राजाने उसका बड़ा आदर-सत्कार, किया / इसके बाद राजाकी आज्ञा लेकर सौभाग्यमंजरी भी उसकी प्रिया हो गयी / तदन्तर रत्नचूड़, पिताका धन पिताको वापिस दे, शेष धनको दान और भोग आदिमें व्यय करने लगा। पूर्वाचार्योंने कहा है, "जीवितं तदपि जीवितमध्ये, गण्यते सुकृतिभिः किमु पुंसाम् / ज्ञानविक्रमकलाकुललज्जा-त्याग भोग विभुता विकलं यत् // 1 // . अर्थात्-'पुरुषके जिस जीवनमें ज्ञान; विक्रम कला, कुलकी लज्जा, दान. भोग और और प्रभुताका पता न हो उस जीवितको र पुण्यात्मा लोग जीवित ही समझते हैं ? अर्थात् नहीं समझते / Ad Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradhak Trust

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