Book Title: Shantinath Charitra Hindi
Author(s): Bhavchandrasuri
Publisher: Kashinath Jain

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Page 434
________________ षष्ठ प्रस्ताव। वैसारतगण धर्मकी पुष्टि करानेके लिये विस्तार-पूर्वक घटित करी रत्नचूड़-कथा समाप्त / इस प्रकार प्रथम गणधरने श्रीसंघको धर्मदेशना सुना, अपनी विरचि द्वादशांङ्गी प्रकट की तथा श्रुतज्ञानको धारण करनेवाले उन गणधरने दस प्रकारकी साधुसमाचारो कह सुनायी और साधुके सारे कले प्रकाश किये। .. रिसके बाद भगवान् श्रीशान्तिव्यूधने वहाँले अन्यत्र विहार किया। सूवि तरह स्वामी निरन्तर भव्यजीव कमल वनको विकसित करने लगे। कितनोंने ही प्रभुके पास आकर पा ले ली, कितनोंने शुभवासनासे प्रेरित हो, श्रावकधर्म अङ्गीकार किया, कितनोंने समकित लाभ किया और कितने ही जीव भगवान्की देशना सुन, भद्रिक भावी हो गये-केवल अभव्य जीव बाकी रह गये, कहा भी है, कि सर्वस्यापि तमोनष्ट-मुदिते जिनभास्करे / कौशिका नामिवान्धत्व-मभव्यानाममुच्चतत् // 1 // वन्निाऽपि न सिध्यन्ति, यथा कंकटुकाः कणाः। तथा सिद्धिरभव्यानां जिनेनापि न जायते // 2 // यथोषरक्षितौ धान्यं, न स्यादृष्टेऽपि नीरदे / / बोधो न स्यादभव्यानां, जिनदेशनया तथा // 3 // अर्थात्--"जिनेश्वर-रूपी सूर्यके उदय होनेसे सबके अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश हो गया , परन्तु उल्लओंकी तरह अभव्यों का अन्धापन ज्योंका त्यों बना रहा। जैसे कंकटुकाके दाने आगमें पकाने पर भी नहीं पकते, वैसे ही जिनेश्वर द्वारा भी अभव्यों को सिद्धि नहीं मिलती। जैसे पानी बरसने पर भी उसरमें बोया हुआ धान नहीं उगता, वैसेही जिनेश्वरकी देशनाले मी अभव्योंको बोध नहीं होता / ". . जिस-जिस देशमें श्री शान्तिनाथ प्रभुः विहार करते थे, वहाँ-वहाँ Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. 52

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