________________ षष्ठ प्रस्ताव / 417 ले लीअट्ठाइस दाँत अन्य अट्ठाईस इन्द्रों के लिये / अन्य देवोंने भगवा के हड्डियाँ ले ली और विद्याधरों तथा मनुष्योंने सब उपद्रवोंव / शान्तिके लये भगवान्की चिता-भस्म ले ली / इस प्रकार देवेन्द्रोंने जिनेश्वरके शीरका संस्कार कर, उसी स्थानपर सुवर्ण-रत्नमय . श्रेष्ठ स्तम्भ बना, उसीर प्रभुकी सुवर्णमयी प्रतिमा स्थापित की और . भक्तिके साथ उसकी पूजा की। इसके बाद नन्दीश्वर-द्वीपमें जा, वहाँकी यात्राकर, सभी सुर-असुर श्रीशान्तिनाथ परमात्माका हृदयमें ध्यान करते हुए अपने-अपने स्थानको चले / भगवान् चक्रायुध भी अनेक साधुगे जसाथ भव्य जीवोंके प्रतिबोध देते हुए पृथ्वीपर विचरण करने लगे। उन्होंने भी कुछ काल व्यतीत होनेपर घाती-कर्मो का क्षय कर, केवल ज्ञान प्राप्त किया। तदनन्तर देवेन्द्रोंसे पूजित होते हुए वे भी भव्य जीवोंके अनेक पंशयोंको दूर करने लगे। इस भरत क्षेत्रके मध्य खण्डमें देवोंसे पूजित और जगत्में विख्यात कोटिशिला नामका एक उत्तम तीथे है। बहाँ बहुतेरे केवलियोंके साथ पुण्यवान् श्रीचक्रायुध गणधर पधारे और वहीं अनशन कर मोक्षको प्राप्त हुए / उस शिलाको पहले श्रीचक्रायुध गणधरने ही पवित्र किया। उनके बाद उस शिलापर कालक्रमसे करोड़ों मुनियोंने सिद्धिपद प्राप्त किया। उसके विषयमें कहा जाता है, कि_ “कोटिशिला तीर्थमें श्रीशान्तिनाशके प्रथम गणधरके सिद्ध होने के बाद करोड़ों साधु सिद्ध हुए हैं। कुंथुनाथके तीर्थमें भी पापको नाश करनेवाले करोड़ों साधु उस शिलातलपर सिद्ध हुए हैं। श्रीमल्लिनाथके तीर्थमें, व्रतोंसे शोभित होनेवाले छः करोड़ केवली वहाँ निर्वाणको प्राप्त हुए हैं। श्रीमुनिसुव्रत स्वामीके प्रसिद्ध तीर्थ में तीन करोड़ 'साधुओंने वहाँ अक्षय-पद प्राप्त किया है। नमिजिनके तीर्थमें विशुद्ध क्रियावाले एक करोड़ साधु-महात्मा सिद्ध हुए हैं। इसी प्रकार समय समयपर वहाँ बहुतसे साधु सिद्ध हुए हैं।" कर्ता कहते हैं, कि वह