________________ প্রীনিবনগ্ন বহির। का पालन करते रहे। सब मिलाकर भगवान्की एक लाख र म यु हुई। अन्तमें जगद्गुरु, अपना निर्वाणकाल समीप आया संदशिखर-पर्वतके ऊपर आरूढ़ हुए। इसी समय स्वामया पिका समय समीप जान, सब देवेन्द्र भी वहाँ आये और उन्होंने मनोकर समवसरणकी रचना की। उसी समवसरण वैठकर जिनेश्वरने अन्तिम देशना दी। उसमें उन्होंने सब पदा की अनित्यता प्रमा. णित की। भगवान्ने भव्य प्राणियोंको लक्ष्यकर कहा,—“हे भव्यजीवों ! इस मनुष्य भवमें ऐसा कार्य करना चाहिये, जिससे इन असार संसारको छोड़कर मुनि प्राप्त किया जा सके।” इसो समय श्री जिनेश्वरके चरणोंमें प्र कर, प्रथम गणधरने पूछा,-“हे स्वामिन् सिद्धिस्थान किस प्रकार का होता है, यह कहिये।" प्रभुने कहा,-- "सिद्ध-भूमि सिद्धशिला) मोतीके हार, जलकी, द और चन्द्रमाकी किरणोंकी तरह उज्ज्वल, पैंतालीस लाख योजनके विस्तारवाली (लग्बी, चौड़ी और गोल) श्वेतरंगकी है और उसका संस्थान खुले हुए छत्रकी तरह है। वह समग्र लोकोंके अग्रभागमें रहती है ; मध्यभागमें आठ योजन मोटी है ; अनुक्रमसे पतली होती हुई प्रान्तभागमें मक्खीके / परकी तरह पतली हो गयी है। उसके ऊपर एक योजन लोकान्त है। उस अन्तिम योजनके अन्तिम क्रोशके छठे भागमें अनन्त सुखोंसे युक्त सिद्ध रहते हैं। वहाँ रहनेवाले जीवोंको जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक आदि उपद्रव तथा कषाय, क्षुधा और तृषा आदि नहीं व्यापते / वहाँ जो सुख मिलता है, उसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती। तो भी मुग्धजनोंके समझानेके लिये उपमा दी जा सकती है। वह इस प्रकार है श्री साकेतपुर नामक नगरमें शत्रुमर्दन नामक राजा राज्य करते थे। उन्होंने एक दिन विपरीत शिक्षावाले अश्वपर सवारी की, जो उन्हें एक बड़े भयङ्कर वनमें ले गया। वहां थके और प्यासे होनेके कारण राजा, मूछी आ जानेके कारण पृथ्वीपर गिर पड़े पासके ही पर्वत पर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust