Book Title: Shantinath Charitra Hindi
Author(s): Bhavchandrasuri
Publisher: Kashinath Jain

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Page 414
________________ 3 . ! . षष्ठ प्रस्ताव। यह सुन, मुनिने उस बयालीस दोषोंसे रहित शुद्ध भोजनको देख, बर्तनसे निकालकर ग्रहण किया और वस्त्रको भी कल्पनीय देखकर उसे भी ले लिया। इसके बाद उसने फिर मुनिको प्रणाम किया / मुनि अपने स्थानको चले गये। व्याघ्रने अपने मनमें सोचा, --"मैं भी धनी हूँ, जो मुझे ऐसा सुअवसर हाथ लगा / विना बड़े भाग्यके ऐसा उस भोजन वस्त्र कैसे मिलता और ऐसे स्थानमें ऐसे महामुनिका शुभमन कैसे होता ? फिर मुझ विवेकहीनके ही मनमें दान देनेकी वा कैसे उदय हो आती ? अतएव आज मेरा जन्म सफल हो गया। व ह भावसे यही सब सोच रहा था, कि इतनेमें उस वटवृक्षमें रहने कोई देवी बोल उठी,-"बेटा ! तेरे मुनिको दान देनेसे मैं बड़ी हुई हूँ, इसलिये बता, मैं तेरा कौनसा मनोरथ पूरा करूँ?” यह व्याघ्रने कहा,-"तुम चाहे कोई देवी क्यों न हो, पर यदि तुम मेरे ऊपर प्रसन्न हो, तो मुझे पारिभद्र नगरका राज दे डालो-साथही बहुतसा द्रव्य भी दो। देवीने कहा, "हे महापुरुष ! तुझे सब कुछ मिलेगा। पहले तु इस बाकी बचे हुए अन्नको खाकर अपनी जान तो बचा ले।" देवीके इस आदेशको सुन, हर्षित होकर उसने भोजन किया। वस्त्र पहना और स्वस्थ हुआ। इतनेमें देवीके प्रभावसे वही बन्दर जंगल से आकर रत्नोंकी पोटली उसके पास रख कर फिर जंगलमें चला गया। उसी पुण्यके प्रभावसे वह योगी भी रससे भरी हुई तुम्बियाँ लिये हुए आया और रससिद्धिके योगसे ढेर-का-ढेर सोना बनाकर व्याघ्र को दे गया। - इधर पारिभद्र-नगरके राजा, किसी कारणसे देवयोगसे मृत्युको प्राप्त हुए / उनके राज्यको चलाने वाला एक भी पुत्र नहीं था। इसलिये देवी रत्नों और सुवर्णके साथ व्याघ्रको लिये हुई उस नगरके पास छोड़ गयी और लोगोंसे कह गयी, "हे पुरवासियो! मैं तुम्हारे लिये एक सुयोग राजा ले आयी हूँ और उसे पुरीके बाहर छोड़े जाती हूँ। तुम लाग उसका बड़ी धूम-धामके साथ नगरमें प्रवेश कराओ / " देवीका Jun Gun Aaradhak Trust

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