________________ षष्ठ प्रस्ताव। 287 सारे उद्यम निष्फल हो जाते हैं, तथापि उन्हें पुरुषार्थका त्याग नहीं करना चाहिये।" __ इस प्रकार अपनी आत्माको आपही धैर्य देकर वह आगे बढ़ा। क्रमसे वह जङ्गल पारकर एक गांव में पहुँचा। उस गांवके बाहर एक योगीको बैठा देख, व्याघ्रने उसे प्रणाम किया। तब योगीने कहा,-"बेटा! ते दारिद्र दूर हो।" यह आशीर्वाद सुन, व्याघ्रने उसे अपनी पूरी राम वनी सुनाकर कहा,-"स्वामी ! अब आपकी कृपासे मेरी दरिद्रता ॐय ही दूर होगी।" इसके बाद योगोने उसे रसकूपके कल्पकी सुनायी और एक पहाड़की कन्दरामें ले जाकर उसे रसके कूऍमें जानेके लिये लटकाया। इसी समय सुलसकी तरह उसे भी रस पहलेसे पड़े हुए किसी आदमीने उसके लिये रसकी तुम्वियाँ दी और उस योगीकी दुष्टता बतला दी। इसके बाद व्याघ्र रससे भरी हुई तुम्बियाँ लिये हुए कुएँके किनारे पहुँचा। जब योगीने उससे तुम्बियाँ माँगी, तब उसने नहीं दी। उस समय योगीने सोचा,-"पहले मैं इसे बाहर तो निकालू, पीछे किसी-न-किसी उपायसे इसे धोखा देकर तुम्बियाँ हथिया लूंगा।" यही सोचकर उसने उसे कुएंसे बाहर निकाला। इसके बाद वे दोनों पर्वतकी गुफासे बाहर निकलकर गांवके पास आ पहुँचे। वहाँ आकर योगीने उससे कहा,- हे भद्र ! हमारा मनोरथ सिद्ध हो गया। इस रसको लोहेके पत्र पर लेपकर आगमें तपाकर मैं सोना बनाऊँगा। अब तुम निश्चिन्त रहो।” यह कह, पहलेका थोडासा सोना, जो योगीके पास था, उसे व्याघ्रके हवालेकर योगीने कहा,-"बेटा! तू यह सोना बस्तीमें ले जाकर बेंच डाल / और उसी दामसे दो वस्त्र तथा उत्तम भोजन ला, तो हमलोग भोजन करें। एक वस्त्र मेरे लिये और एक अपने लिये लाना। धनका यही उपयोग है, कि खाये और दान करे।" यह सुन, व्याघ्रने सोचा,-"यह योगी अवश्य ही मेरा हितैषी है, नहीं तो अपना सीना मुझे काहेको देता ?" ऐसा विचारकर, रसकी तुम्बियाँ योगीके ही पास छोड़कर वह सरल P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust