________________ श्रीशान्तिनाथ चरित्र। चित्तसे वस्तीमें जा, पूरी-मिठाई आदि अच्छी-अच्छी खानेकी चीजें बनवा, मिट्टीके बर्तनमें भर, और वस्त्र भी खरीद कर गाँवके बाहर हुआ। इधर योगी रसकी तुम्बियाँ लिये हुए उसे धोखा देकर चम्पत हो गया। - वहाँ पहुँचकर, व्याघ्रने जब उसे नहीं देखा, तब सोचा,-"ओह ! उस दुष्ट योगीने तो मुझे खूब छकाया ! परन्तु कहा है,- मित्रद्रोही कृतघ्नश्व, स्नेहीविश्वासघातकः / / . ते नरा नरकं यान्ति, यावच्चन्द्रदिवाकरौ // 1 // ' / : अर्थात्-"मित्रद्रोही, कृतघ्न और स्नेहीके साथ विश्: - 'घात करनेवाले मनुष्य तबतकके लिये नरकमें पड़े रहते हैं, क सूरज और चाँद पृथ्वी पर प्रकाश फैलाया करते हैं।" - यह कह, भोजन और वस्त्र पृथ्वीपर फेंक, मूर्छित हो जानेके वह ज़मीनपर पड़ा रहा। कुछ देर बाद होशमें आनेपर उसने आ आप कहा,-"हा दैव! क्या इस संसारमें तुम्हें मुझसा अभागा और न कोई न मिला,जो तुम मुझे ही इस तरह सब दुःखोंका भण्डार बनाये हुए हो ? एक तो मुझे निर्धनता सता ही रही थी। दूसरे, मैंने जो सेवा की, तो वह भी बेकार होगयी ; फिर रत्न हाथमें आकर जाते रहे और अबके सुवर्ण सिद्धिका रसभीमुट्ठीमें आकर निकल गया ! मेरे लिये केवल दुःख . परम्परा ही रखी है। इसलिये अब तो मेरा मर जाना ही अच्छा है।" .. यही सोचकर वह एक पेड़पर चढ़ गया और उसकी एक डालमें रस्सी बाँध, उसमें अपना गला फँसाना ही चाहता था, कि इतने में महीने भरके उपवासी, ईर्यासमितिके शोधनमें तत्पर और बस्तीकी ओर आहारके लिये जाते हुए एक मुनिको देखकर उसने सोचा,—"मैं वृक्षले नीचे उतरकर यह शुद्ध भोजन और वल इन्हीं मुनीश्वरको दे डालें, तो इस दानके प्रभावसे शायद जन्मान्तरमें मुझे सुखकी प्राप्ति होगी।" यह सोच, वृक्षसे नीचे उतर उसने मुनिको प्रणाम किया और उनके सामने वह भोजन-वस्त्र रख कर कहा,-'हे पूज्य ! कृपा कर आप इस भोजन और वस्त्रको ग्रहण करें / " . . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust