________________ 250 श्रीशान्तिनाथ चरित्र। '' यह कह, वत्सराज महलके उस ऊपरी हिस्सेमें चले गये, जहाँ पर पुत्री श्रीदत्ता रहती थी। उस समय उस लड़कीने उस अलौकिक रूपवान कुमारको देखकर सोत्रा,-"अहा ! इसका कैसा सुन्दर पी. इसकी शरीरको कान्ति कैसी मनोहर है ! इसके शरीरका कोई अड ऐसा नहीं, जो मनोहर नहीं हो। हाय ! देवने मुझे स्त्रीके रूप में मना की देनेवाली क्यों बनाया ? मैं ऐसे-ऐसे मनुष्य-रत्नोंको मार कर जीती हूँ।" यह ऐसा सोचही रही थी, कि वत्सराजने उसकी सेजके पास आ, मधुर वचनोंसे उसे ऐसा प्रसन्न किया, कि वह फिर विचार करने लगी,-"चाहे जो हो, मैं अपनी जान देकर भी इसकी जान बचाऊँगो।" . यही सोचते-सोचते वह सो गयो। इसके याद साहसी मनुष्योंमें शिरो. मणि कुमार वत्सराजने खिड़कीको राह, नीचे उतरकर, ज़मीनपर पड़ी हुई एक लकड़ी उठा लो और फिर उसी राहसे ऊपर चढ़कर अपनी शय्यापर यह लकड़ी रखकर उसके ऊपर एक वस्त्र डाल, हाथमें खङ्ग / लिये, चारों ओर नज़र दौड़ाते हुए, दविके उजालेसे हटकर अँधेरेमें खड़े / हो रहे। इतने में उसी खिड़कीके बाहर किसीको मुँह निकालते देखकर कुमार और भी सावधान हो रहे। इसके बाद उस मुख्ने उस घरके चारों ओर देखा / तदनन्तर मनोहर अंगूठियोंसे सोहती हुई अँगुलियोंवाला एक हाथ उसी खिड़कीमें नजर आया। उस हाथमें दो औषधियोंके कड़े पड़े थे। उन कड़ोंमेंसे एकमेंसे धुआं निकला। उस धुएं से सारा घर भर गया। इसके बाद अन्दर आकर उस हाथने पहरेदारके पलंगको छुआ। इसी समय वत्सराजने तलवारका एक हाथ ऐसे ज़ोरसे उस हाथपर मारा, कि वह कट गया; परन्तु देवशक्तिः के प्रभावसे वह हाथ कटनेपर भी जमीनपर नहीं गिरा। तथापि पौड़ाक कारण उस हाथके दोनों कड़े नीचे गिर पड़े। उसमें एक धूम्रौषधि और दूसरी संरोहिणी-औषधि * थी / इन दोनों महौषधिओंको कुमारने अपने पास रख लिया। इसके बाद वह हाथ उस घरसे बाहर निकला। उस समय "अरे बापरे !: बड़ा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust