________________ षष्ठ प्रस्ताव। उसी तरह त्याग दें, जैसे रस पीकर ईखको फेंक दिया जाता है।" बुआके ऐसा कहने पर भी उस वेश्याने सुलसको नहीं छोड़ा। _एक दिन मौका पाकर बुढ़ियाने सुलससे कहा, "हे भद्र ! तुम थोड़ी देरके लिये नीचे जाओ, जिसमें यहीं बैठ कर नाकका गहना साफ़ किया जा सके।" यह सुनकर उसने सोचा,-"इन सोलह वर्षों में मैंने कभी इस तरहकी बात नहीं सुनी थी, आज ही यह बात क्यों सुन पड़ी?" यही सोचकर वह नीचे उतरकर बैठ रहा। इसी समय बुढ़ियाकी दासियोंने उससे कहा.- "अरे! तू निर्लजकी तरह यहाँ क्या बैठा हुआ है ?" यह सुन, सुलस तत्काल उस घरसे बाहर निकलकर अपने घरकी ओर चला; पर इतने दिन घरसे बाहर रहनेके कारण वह घरका रास्ता भी भूल गया था। कोमलताके कारण उसको चलने में भी कष्ट होता था। किसी-किसी तरह रास्ता याद करता हुआ वह धीरे-धीरे अपने घरके पास आ पहुँचा। उसका वह घर टूट-फूट गया था, उसकी दीवारें गिर पड़ी थीं, चूना झड़ गया था और किवाड़ टूट गये थे। इस तरह खण्डहरके समान शोभा रहित, उजाड़ और निर्जन घर देख कर उसने एक आदमीसे पूछा,- "हे भाई! वृषभदत्त सेठका यही घर है या दूसरा ?" उसने कहा,-"यही है।" सुलसने पूछा,--"तो इसकी ऐसी हालत क्यों हो रही है ? सेठजी कुशलसे हैं न ?" उसने कहा,---“सेठ और सेठानी—दोनों कभीके मर गये और निर्धनताके कारण घरकी ऐसी हालत हो गयी।" यह सुन, उसने शोकातुर होकर विचार किया,---"ओह ! मैं वेश्यामें ऐसा आशक्त हो रहा, कि माँ-बापके मरनेका भी हाल नहीं जाना। धन भी चौपट हो गया और मेरी ही करनीसे पिताका स्वर्गीय विमानके सदृश कान स्मशान हो गया। अब मैं अपने आत्मीय-स्वजनोंकों कैसे मुँह दिखलाऊँगा ?" ऐसा सोचते हुए वह बाहरसे हो घरकी ओर आँख भर देख कर नगरके बाहर एक जीर्ण उद्यानमें चला गया। वहाँ उसने सरीसे एक ताड़-पत्र पर यह चिट्ठी अपनी स्त्रीके नाम लिखी:-.- . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust