________________ षष्ठ प्रस्ताव / खूब दान दिया करता था। क्रमशः वह श्रावक हो गया। एक दिन उसने अपने मनमें सोचा,-"मैंने इतना दान किया, अब ज़माना वैसा नहीं रहा, इसलिये अब तो साधुओंको दान नहीं दूंगा / इन्हें देनेका भला कौनसा फल है ? याचकोंको ही देना ठीक है, क्योंकि इन्हें दान देनेसे लोकमें सर्वत्र प्रसिद्ध होती है और प्रशंसा होती रहती है। परंतु साधुओं को देनेसे क्या नतीजा होता है ? वे तो किसीसे जाकर प्रशंसा भी नहीं करते / इस प्रकार सोच-विचार कर ताराचन्द्रने बीच-बीच में अविवेकके कारण दृढ़ अन्तराय-कर्म उपार्जन किया / फिर एक बार साधुओंको देखकर उसे दान देनेकी बड़ी श्रद्धा हुई, इसीलिये उसने उन्हे दान दिया। इसके सिवा हे वत्स ! उस भवके पूर्व भवमें तुमने कुछ देवद्रव्य नष्ट कर डाला था। इसके बाद बहुत बार संसारमें भ्रमण कर तुम किसान हुए थे। उस भवमें तुमने बहुत दान-पुण्य किया था; पर पीछे दुद्धि उत्पन्न होनेके कारण उसे खण्डित कर दिया था / अन्तमें ताराचन्द्रने समाधिस्मरण द्वारा मृत्यु पाकर सौधर्म-लोक में देवत्व प्राप्त किया और वहाँसे आयुष्य पूरा होने पर इस भवमें तुम सुलस नामके सेठके बालक हुए। पूर्वजन्मके कर्मों के प्रभावसे हो तुम्हारे पास लक्ष्मी टिकने नहीं पाती थी। इसीलिये हे श्रेष्ठी पुत्र ! विवेकी प्राणियोंको चाहिये, कि मनको शुद्ध करके दान दें और उसमें छे मीन-मेष न करें। और-और धर्म-कार्य भी श्रद्धाके ही साथ करने हिये, क्योंकि श्रद्धापूर्वक किया हुआ धर्म-कार्य ही सफल होता है।" इस प्रकार गुरुके मुखसे अपने पूर्व भवका वृत्तान्त श्रवण कर, प्रतिध प्राप्त कर, सुलसने राजासे कहा,-'हे राजन् ! मुझे आज्ञा दीजिये, . दीक्षा ग्रहण कर लूं।” राजाने कहा, "मुझे भी प्रतिबोध प्राप्त मैं इसलिये तुम्हारे ही साथ-साथ मैं भी दीक्षा ले लूंगा।" यह कह, किया पने घर जा, अपने पुत्रको गद्दी पर बैठा दिया। इसके बाद ल, उत्तम भावनासे अपनी आत्माको धन्य मानते हुए दोनोंने ही चारित्र ग्रहण कर लिया। संयम गुरुके पास आये और H NER TRA . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust