________________ षष्ठ प्रस्ताव। 347 क्षीण हो गया। इससे उसके मुखकी कान्ति भी नष्ट हो गयी। कहा भी है"वरं बाल्ये मृत्युनं तु विभवहीनं निवसनं, वरं प्राणत्यागो न पुनरधमागारगमनम् / वरं वेश्या भार्या न पुनरविनीता कुलवधूः,. ... वरं वासोऽरण्ये न पुनरविवेकाधिपपुरे // 1 // " __अर्थात्--"लडकपनमें ही मर जाना अच्छा; पर बिना वैभवके जीना अच्छा नहीं / प्राण त्यागकर देना अच्छा, पर अधम पुरुषके घर जाना अच्छा नहीं / वेश्या स्त्री हो सो भली, पर कुलवधू होकर भी जो विनयी नहीं हो, वह अच्छी नहीं। जंगलमें रहना अच्छा; पर अविवेकी राजाके नगरमें बसना अच्छा नहीं।" इसी समय वही देव, उसकी निधनताका हाल अवधिज्ञान द्वारा जानकर फिर उसके पास आया और बोला,- "हे सुलस ! तुम ऐसे शोकाकुल क्यों हो रहे हो ? मेरे जैसा मित्र होते हुए भी तुम्हें चिन्ता काहे की है ? " यह कह, प्रसन्न होकर उसने तत्काल उसके घरके ऑ नमें कुवेरकी तरह सुवर्णकी वर्षा की। यह देख, सुलसने कहा,JA"हे मित्र! इतना धन मुझे नहीं चाहिये ; क्योंकि मैंने तो परिग्रहका प्रमाण किया है।" यह सुन, देवने कहा, "हे भद्र ! तुमने यह बहुत अच्छा किया; क्योंकि मुनीश्वरोंने कहा है, कि जैसे-जैसे लोभ कम है, वैसे-वैसे आरम्भ और परिग्रह भी कम होता जाता है और ... नके कम होनेसे मनुष्योंको सुख तथा धर्मकी सिद्धि होती है / " यह उसने सुलसके इच्छानुसार उसे धन दिया और उससे विदा मांग पने स्थानको चला गया। मैंनदिन सुलस, नगरके बाहर बागीचे में गया, वहां उसने एक जगह किया / उसी समय राजाके नौकरने उसे खज़ाना देखते देख लिने बाद राजपुरुषने भी उस ख़ज़ानेको देखकर अपने मनमें सांची, "ठीक है, आज हमलोग देख रहे थे इसीलिये सुलस इस . . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust