________________ - श्रीशान्तिनाथ चरित्र। उस तीर्थके अधिष्ठाता देवता-मागधकुमारका आसन डोल गया। यह .. देख, उन्होंने अवधि-ज्ञानका उपयोग कर, अपने आसन डोलनेके कारण मालूम कर लिया, उन्हें मालूम होगया, कि श्रीशान्ति नामक चक्रवर्ती - छहों लण्डोंको जीतने के लिये तैयार हुए हैं और यहां आ पहुँचे हैं। यह जानकर देवताने सोचा, “यदि और कोई चक्रवर्ती होता, तो मुझे उसकी भी आराधना करनी ही पड़ती। फिर ये तो श्रीशान्तिनाथ चक्रवती जिनेश्वर हैं। इसलिये ये तो मेरे लिये अधिक आराध्य (पूजनीय ) है / भला जिनकी भक्ति देवेन्द्र भी करते हैं, उनकी भक्ति मैं क्योंकर नहीं करूंगा ?" यही सोचकर मागधकुमार देव, उत्तमोत्तम वल तथा महामूल्यवान् अलङ्कार लिये हुए प्रभुके पास आये और ये सब चीजें भेंट कर, कहा,-“हे स्वामी ! मैं पूर्व दिशाका पालक और आपका सेवक हूँ। आप जब जैसी आशा चाहें, मुझे दे सकते हैं। यह सुन, भगवान्ने उनको भादरके साथ विदा किया। इसके बाद चक्री चकके पीछे-पीछे चलते हुए दक्षिण-दिशामें भाये / क्रमशः उन्होंने वर-दाम तीर्थ में आकर सेनाका पड़ाव किया और यहाँके भधिष्ठाता देवको भी मगधके देवताके ही समान अपने अधीन कर लिया। इसी प्रकार उन्होंने पश्चिम दिशाके प्रभासतीर्थके अधिष्ठाताको भी वशमें कर लिया और उत्तर-दिशामें सिन्धु-नदीके किनारे आ रहे। यहाँ भी पहलेकी तरह उन्होंने सिन्धु-देवीको वशीभूत किया। देवीने प्रभुके पास आ, एक रनमय स्नान-पीठ,बहुतेरे सोने, चांदी और मिट्टीके कलश तथा अन्यान्य स्नानोपयोगी सामग्रियों के साथ-साथ उत्तमोत्तम पत्राभरण प्रभुकी भेंट करते हुए कहा,-“हे नाथ ! मैं सर्वदा आपकी माझाके अधीन हूँ।" यह सुन, स्वामीने उनको सम्मानके साथ विदा किया और वे अपने स्थानको चली गयीं। . . - इसके बाद प्रभुकी आज्ञासे चर्म-रत्नले सिन्धुनदी पारकर सेना पति पश्चिम-खण्डपर विजय प्राप्त कर, प्रभुके पास आये। इसके बादः चक्ररत्न वैताढ्य-पर्वतपर आया। उसी समय वैताढ्यरर्वतके वैताढ्यकुमार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust