________________ 260 श्रीशान्तिनाथ चरित्र। 'श्रादौ दष्टे प्रिये सानुरागाऽसौ कलहंसिका। पुनस्तद्दर्शनं शीघ्रं, वाञ्छत्येव वराक्यहो // 1 // ' अर्थात्---'जिस दिन पहले-पहल इस राजहंसीने अपने प्राणप्यारेको देखा, उसी दिनसे यह उनपर अनुराग करने लगी / इसी लिये अब यह बेचारी फिर उनके दर्शनोंकी इच्छा कर रही है / - यह पढ़कर कुमारने उसी चित्रपट पर हंसका चित्र अडित कर उसके नीचे यह श्लोक लिख दिया , "कलहंसोऽप्यसौ सुश्रु, क्षणं दृष्ट्वाऽनुरागवान् / पुनरेव प्रियां द्रष्टुमहोवाञ्छत्यनारतम् // 2 // " "हे सुन्दर भौंरोंवाली ! यह राजहंस भी क्षण भरके लिये प्रियाको देखकर अनुरागवान् हो गया है / इसी लिये अब यह फिर निरन्तर प्रियाको देखने की इच्छा करता है।' इस प्रकार लिखकर कुमारने वह चित्रपट दासीको लौटा दिया। ) इसके बाद कुमारीके दिये हुए ताम्बूल, विलेपन और सुगन्धित पुष्प आदि लाकर उस दासीने कुमारको दिये। कुमारने उन्हें हाथमें ले, फूलोंको सिरपर चढ़ाया, ताम्बूलको खा लिया और विलेपनको शरीरमें लगा लिया। तदनन्तर कुमारने प्रसन्न होकर उस दासीको एक हार इनाममें दिया। हारको लेकर दासीने कहा, "हे कुमार! राजकुमारीका संदेसा सुनो।" इसपर कुमारने उस स्थानसे लोगोंको हटाकर वहाँ एकान्त कर दिया और दासीकी बातको सावधानीके साथ सुननेके लिये तैयार हो गये। दासीने कहा, -- "राजकुमारीने तुम्हें कहला भेजा है, कि मैं कल सवेरे तुम्हारे गलेमें जयमाला डालूँगी ; पर मेरा पाणिग्रहण करनेके बाद बहुत दिनों तक तुम्हें विषय-सेवन नहीं करना होगा।" यह सुन, कुमारने उस बातको स्वीकार कर लिया। दासी मन बड़ी सन्तुष्ट हुई। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust