________________ 322 श्रोशान्तिनाथ चरित्र। राजाको यह बात तब मालूम पड़ी, जब वे घर लौट आये। उन्होंने उसी समय वसुदत्त कोतवालको उसे ढूँढ़ लानेकी आज्ञा दी, राजाकी आज्ञा पाकर वसुदत्त कुण्डलकी तलाशमैं चल पड़ा। इसी समय उसने अपने आगे-आगे उसी रास्तेसे जिनदत्तको भी किसी कार्यवश जाते हुए देखा। उसी समय जिनदत्तने रास्तेमें कुण्डल पड़ा हुआ देख, वह रास्ता ही छोड़ दिया और दूसरी राहसे जाने लगा। सोचा, "अात्मवत्सर्वभूतानि, परद्रव्याण लोष्टवत / ___ मातृवत्परदारांश्च यः पश्यति स पश्यति // 1 // " अर्थात्--"जो सब प्राणियोंको अपनी आत्माके समान जानता है, पराये धनको मिट्टीका ढेला समझता है और परायी स्त्रीको माताके समान देखता है,वही वास्तवमें देखता है ; अर्थात् वही पण्डित है।" इतने में पीछेसे वसुदत्त भी वहाँ आ पहुँचा और कुण्डलको पड़ा। देख उसे लिये हुए राजाके पास आकर उनके हवाले कर दिया। . राजाने प्रसन्न होकर पूछा, "हे भद्र ! तुम्हें यह कुण्डल कहाँ मिला ?" यह सुन, उस दुष्टने द्वेष-भावसे राजासे कहा, -“हे स्वामी! इसे मैंने जिनदत्तसे लिया है।" यह सुन, राजाने कहा, "ऐं ! क्या जिनदत्त परद्रव्य ग्रहण करता है ? वह तो बड़ा धर्मात्मा और विवेकी कहलाता है! धर्मात्माओंके विषयमें पूर्वाचार्योंका मत है कि, 'पतितं विस्मृतं नष्टं, स्थितं स्थापितमाहितम् / _ अदत्तं नाददीत स्वं, परकीयं क्वचित्सुधीः // 1 // __ अर्थात्- 'दूसरेका धन चाहे गिर गया हो, भूल गया हो, नष्ट हो गया हो, स्वाभाविक रीतिसे ही रखा हुआ हो, धरोहरके तौरपर रखा हुआ हो अथवा रख छोड़ा गया हो-वह इन सब अवस्थाओं में अदत्तही कहलाता है / बुद्धिमानोंको चाहिये कि ऐसा अदत्त धिन कभी न लें। राजाकी यह बात सुन, वसुदेवने कहा, "हे स्वामिन् ! जिनदत्त P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust