________________ 170 श्रीशान्तिनाथ चरित्र। . लिये आसन दिया और स्वागत-प्रश्नके साथ बड़ी नम्रतासे बोला,"भला यह तो कहिये, आज आपने किस लिये मेरे घर आनेकी कृपा की ?" पुरन्दर सेठने कहा,-"सेठजी! मैं आज अपने पुत्रके लिये / / आपकी पुत्री रत्नसुन्दरीकी मँगनी करने आया हूँ।" यह सुन, रत्नसारने कहा, "यह बात तो मेरे मनकी सी ही है। यह कन्या मैं आपके ही पुत्रको सौंपूगा, इसमें कहनेकी क्या बात है ? आपका इशारा ही काफ़ी है। कन्या तो आखिर किसी-न-किसीको देनी है, फिर जब स्वयं ही आप उसकी मैंगनीके लिये आये हैं, तब और क्या चाहिये ? मैं आपकी बात मानता हूँ / " जब रत्नसार सेठने इतना कह डाला, तब उसके पासही बैठी हुई वह बालिका चटपट बोल उठी,"पिताजी ! मैं कदापि पुण्यसारकी पत्नी न बनूंगी।" उसकी यह बात सुन, पुरन्दर सेठने अपने मनमें विचार किया,-"ओह ! मेरे पुत्रने व्यर्थ ही इस कन्याके साथ व्याह करने की इच्छा की। बचपनमें ही जिसकी वाणी इतनी कठोर है, वह जब जवानीकी मस्तीमें आयेगी, तब भला / पतिको कौनका सुख देगी?" वह ऐसा सोच हो रहा था, कि रत्नसार सेठने कहा,-"मेरी लड़की अभी निरी नादान बची है। क्या कहना चाहिये और क्या नहीं कहना चाहिये, इसकी समझ इसको नहीं है। इसलिये आप इसके कहेका कुछ ख़याल मनमें न आने दें। सेठजी! मैं इसे समझा-बुझा कर आपके ही पुत्रके साथ विवाह करनेको राजी कर लूंगा।" यह सुन, पुरन्दर सेठ अपने स्वजनोंके साथ वहाँसे उठ कर अपने घर आया और पुत्रसे सारा हाल सुनाकर कहा,-"बेटा! वह लड़की तेरे लायक नहीं है ; क्योंकि. 'कुदेहां विगतस्नेहां, लजाशीलकुलोज्झिताम् / अतिप्रचण्डां दुस्तुण्डां; गृहिणीं परिवर्जयेत् // 1 // ' अर्थात्--'कुरूपा, स्नेह-रहिता, लज्जा, शील और कुलसे हीना अतिप्रचण्डा और दुर्भाषिणी भार्याका सदा त्याग करना चाहिये / ' “ऐसा शास्त्र में कहा हुआ है।" यह सुन, पुण्यसारने कहा, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust