________________ '164 श्रीशान्तिनाथ चरित्र। .. “दूसरी वैनयिकी बुद्धि है। यह गुरुकी विनय करनेसे प्राप्त होती है। निमित्तादिक शास्त्रोंमें जो सुन्दर विचार उत्पन्न होते हैं, उनमें गुरुकी विनयही प्रमाणभूत है। घट आदि पदार्थ बनाने और चित्र अङ्कित करने आदिके शिल्प-शानको तीसरी कार्मिकी बुद्धि कहते हैं। परिणामके वश-वयके परिपाकसे-वस्तुका निश्चय करानेवाली जो बुद्धि होती है, वही चौथी परिणामिकी बद्धि कही जाती है। इस बुद्धिके बहुतसे दृष्टान्त शास्त्रोंमें पाये जाते हैं, पर ग्रन्थ बड़ा हो जानेके ही भयसे, हमने उन्हें यहाँ नहीं लिखा। इन चार प्रकारकी बुद्धियोंको अश्रुत-निश्रित मतिज्ञान कहा जाता है। इस मतिज्ञानसे प्राणी समग्र श्रुतज्ञानका अभ्यास कर सकते हैं और श्रुत-ज्ञानसे तीनों कालका शान प्राप्त होता है। इस विषयमें आगममें कहा हुआ है, कि....... "उड्ढमहतिरियलोए, जोइसवेमाणिया य सिद्धा य। .. . सव्वो लोगालोगो, सि ( स ) ज्ज्ञायविउस्स पञ्चक्खो // 1 // " .अर्थात्-- "उर्द्ध-लोक, अधोलोक, तिछेलेक, ज्योतिषी, वैज्ञानिक, सिद्ध और सर्व लोकालोक--यह सब स्वाध्याय ( श्रुतज्ञान ) जाननेवालेको प्रत्यक्ष होजाता है। यह दूसरा श्रुतज्ञान कहलाता है।" "जिसके द्वारा प्राणीको कितनेही जन्मों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है और जिससे वह सब दिशाओंकी अमुक अवधि-पर्यन्त जानता और देखता है, वह तीसरा अवधि-ज्ञान कहलाता है। जिसके द्वारा संशीजीवोंके मनोगत परिणामका ज्ञान होता है, वह चौथा मनः पर्यवज्ञान . कहा जाता है ।और जिस ज्ञानसे किसी स्थानपर किसी तरहको ठोकर नहीं लगती-किसी तरहकी भूल-चूक नहीं होती, वही सिद्धि-सुखका देनेवाला केवलज्ञान कहलाता है।" .... इस प्रकार पाँच प्रकारके ज्ञानकी व्याख्यासुन, जिनेश्वरको नमस्कार कर, अपने घर आकर वज्रायुध चक्रवर्तीने अपने सहस्रायुध नामक पुत्रको राज्यपर बैठा दिया और स्वयं चार हज़ार राजाओं और सात सौ पुत्रोंके साथ क्षेमकर तीर्थङ्करसे दीक्षा ग्रहण कर ली। इसके बाद P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust