________________ पञ्चम प्रस्तावं। 221 _ "मरणसमं नत्थि भयं, खुहा सगा वेयणा नत्थि / ___ पंथ समा नत्थि जरा, दालिह समो पराभवो नत्थि // 1 // " अर्थात्--"मृत्युके समान भयकी वस्तु और कोई नहीं है / क्षुधा के समान दूसरी कोई वेदना भी नहीं है / मुसाफिरीकी तरह तकलीफ बुढापेमें भी नहीं होती और दरिद्रताके समान दूसरा कोई पराभव (पराजय संकट ) नहीं है।" ____ "इसलिये हे मित्र! तुम ऐसा कोई उपाय करो, जिससे मेरी यह तकलीफ दूर हो।" ___ यह सुन, गङ्गदत्तने सोचा,-"इस दुष्टने इस कुएँ के सब जीवोंको तो खाही लिया, अबके मुझे भी खाया चाहता है। इसलिथे चाहे जैसे हो अपनी जानको तो इसके फन्देसे बचाना ही होगा।" यही सोचकर गङ्गदत्तने प्रियदर्शनसे कहा,-"स्वामी! मैं तुम्हारे लिये बड़ी-बड़ी नदियोंमें जाकर अपनी जातिके जीवोंको ला दिया करूँगा; पर मुझमें ऐसी शक्ति नहीं, कि वहाँ तक जा सकू, इसलिये यदि यह चित्रलेखा मुझे अपनी चोंचसे पकड़ कर वहाँ पहुँचा दिया करे, तो तुम्हारी खुराक आनन्दसे पहुँच जाया करे।" यह सुन, प्रसन्न होकर, उस सर्पने, अपने स्वार्थ के लिये चित्रलेखा नामक मैनाको वैसी ही आज्ञा दे दी / तदनुसार चित्रलेखा, उसे चोंचमें दबाये हुए ले चली और एक बड़ी भारी झीलमें. जाकर छोड़ आयी। वह मेंढक तो उस झीलमें पहुंचकर चैनसे बैठ रहा। तब उसका अभिप्राय नहीं समझ कर चित्रलेखाने थोड़ी देर बाद आवाज़ लगायी,-"भाई गङ्गादत्त! जल्दी चलो। स्वामी प्रियदर्शन बड़ी तकलीफ़में हैं / इसलिये तुम अपने प्रतिज्ञानुसार उनका मनोरथ पूरा करनेके लिये जल्दी चलो।" यह सुन, गङ्गदत्तने कहा,-"अरी मैना ! सुन-. भूखा हुआ प्राणी कौनसा पाप नहीं करता ? क्षुधासे क्षीण मनुष्यों के हृदयमें करुणा नहीं होती, इसलिये बहन ! तुम प्रियदर्शनसे जाकर कह देना, कि अब गङ्गदत्त उस कुएं में नहीं आनेका।" इस प्रकार अपना अभिप्राय. प्रकट कर उसने फिर कहा, "बहन ! अब तुम भी . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust