________________ 236 श्रीशान्तिनाथ चरित्र / ज़रा भी न डरा। वे विद्याधरियाँ भी यक्षके भयके मारे किवाड़ तोड़ कर भीतर नहीं जा सकती थी, इसलिये बाहरसे बोलती रहीं। इसके बाद उन्होंने सोचा,-''मालूम होता है, कि यह रातभर यहीं रहेगा, इसलिये नगरमें चलकर इसके नामादिका पता लगाना चाहिये; क्योंकि इसका कोई-न-कोई सगा-सम्बन्धी तो होगा ही, जो इसे रातको न आया देख रो रहा होगा। तभी इसको बाहर बुला लानेमें आसानी होगी।" यही सोचकर वे दोनों विद्याधरियाँ आकाशमार्गसे नगरमें चली आयीं और चारों ओर जोह-टोह लेने लगीं। इतने में उन्हें एक स्थान पर धारिणी और विमला बैठी हुई दुःखके साथ पुत्रका नाम ले-लेकर रोती दिखाई पड़ीं। वे कह रही थीं,-"हाय ! वीरसेन राजाके पुत्र पवित्र चरित्रवाले कुमार वत्सराज तेरी यह क्या गति हुई ? पहले तो तेरा राज्य छीना गया, इसके बाद तू परदेशी बना, पराये घरमें आकर रहा, कष्टसे भोजन मिलता रहा, इतनेपर भी आज हम अभागिनियोंने तुझे न जाने क्यों ईधन लानेके लिये भेजा? आज तू अभीतक लौटकर क्यों नहीं आया ?" ) उनकी यह बात सुन, वे विद्याधरियाँ फिर उसी देवमन्दिरमें चली . आयीं और वत्सराजकी माता तथा मासीकी सी आवाज़में बोलीं"हे वत्सराज ! हम दोनों तुझे सारे शहरमें खोजती-ढंढ़ती तेरे वियोगके दुःखसे दु:खी होकर यहां आ पहुँची हैं / इसलिये जल्द बाहर आ और हमें अपना मुखड़ा दिखला।" यह सुन, मन्दिरके भीतर बैठे हुए वत्सराजने सोचा,- "इस समय मेरी मां और मासीका यहाँ आना कदापि सम्भव नहीं है / यह उन्हीं विद्याधरियोंकी माया है। यह कपट रचना उन्होंने अँगियाके ही लिये की है।" ऐसा विचार कर, वे चतुराईसे चुप रह गये। उन्होंने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। क्रमसे सूर्योदय हो आया और वे विद्याधरियाँ चिल्लाते-चिल्लाते हारकर घर चली / गयीं। . . . . . . . .... इसके बाद किवाड़की सन्धसे उजेला आता देख, वत्सराज किवाड़ खोलकर बाहर निकले और चन्दन-वृक्षके कोटरमें उस कंचुकी (अंगिया) P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust