________________ 180 श्रीशान्तिनाथ चरित्र। और न ऐसा कोई हितू मिला, जिससे अपने जीका दुखड़ा कहे / इस तरह छः महीने बीत गये। अब तो वह अपनी प्रतिज्ञा पूरी करनेके लिये पूरी तरह तैयार हो गयी, क्योंकि उसकी अवधि वीती जाती थी, उसके आदमियोंने उसे लाख रोका, तो भी उसने न माना और नगरके बाहर जा, उत्तमोत्तम लकड़ियोंकि चिता रचा, उसीमें प्रवेश करने चली। उसी समय सारे नगरमें यह बात फैल गयी, कि वह नौजवान सौदागर किसी तरहकी उदासीमें पड़कर आज अग्निमें प्रवेश करने जा रहा है। कानोंकान फैलती हुई यह बात राजाके कानों तक पहुँची। सुनते ही राजा, पुरन्दर सेठ, रत्नसार, पुण्यासार आदिके साथ-ही-साथ नगरके बाहर उस स्थान पर आ पहुंचे और उससे बोले,—“हे सौदागरके बेटे ! तुम्हें कौनसा दुःख है, जिसके लिये तुम आगमें जलने जा रहे हो ? क्या किसने तुम्हारी आज्ञा टाली है ? किसीने तुम्हारा कुछ बड़ा-भारी नुकसान कर दिया !" तदनन्तर सेठ रत्नसारने कहा,“वेटा ! यदि मेरा या मेरी पुत्रीका कोई अपराध हो, तो मुझे बतला दो।" यह सुन उसने कहा,-"किसीका कुछ अपराध नहीं है। न तो किसीने मेरी आज्ञा उलट दी है, न मेरा कुछ चुरा लिया है ; परन्तु अपने प्यारेसे विछुड़ा देनेवाले दैवने ही मुझे दण्ड दिया है, अतएव मुझे इस दु:खले जलते हुए शरीरको अग्निकी शरणमें दे देना पड़ता है / " यह कहती और लम्बी उसाँसे लेती हुई, वह ज्योंही उस चिताके पास पहुंची, त्यों ही राजाने कहा, –“जो कोई इस सौदागर-बच्चेका परम प्यारा मित्र हो, वह इसे समझा-बुझाकर यों जान देनेसे रोक ले।" इस पर नगरके लोगोंने कहा,-"इसकी पुण्यसारके साथ बड़ी दोस्ती है। यह सुन, राजाने पुण्यसारको हुक्म दिया, कि उसे मरनेसे रोको। राजाकी आज्ञानुसार आगे बढ़कर पुण्यसारने कहा, "हे / मित्र ! तुम युवा और धनवान हो, तो तुम्हें कौनसा दुःख है, यह मुझ से कहे विनाही तुम्हारा यों प्राण दे देना ठीक नहीं" यह सुन, उसने कहा,-"मुझे तो यहाँ ऐसा कोई दिलदार यार नहीं दिखाई P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust