________________ wom चतुर्थ प्रस्ताव। 175 किया है ?" उसने कहा, "मुग्धाओ! मुझे कलाओंसे प्रेम नहीं; क्योंकि 'अत्यन्तविदुषां नैव, सुख मूर्खनृणां न च . अजनीयाः कलाविद्भिः, सर्वथा मध्यमाः कलाः / / 1 // अर्थात्- "अत्यन्त विद्वान् मनुष्यों को सुख नहीं होता, वैसे ही अत्यन्त मुर्ख मनुष्य भी सुख नहीं पाते / इसलिये कलाओंके जाननेवलोंको चाहिये, कि सदा सब प्रकारसे मध्यम कलाओं का ही उपाजन करें। वे बिचारी इस श्लोकका अर्थ नहीं समझ सकीं, इसलिये सोचविचारमें पड़ गयीं। तब पुण्यसारने अपने मनमें सोचा,-"यदि. वह वृक्ष यहाँसे चला जायेगा, तो मैं यहीं पड़ा रह जाऊँगा; इसलिये अब यहाँ विलम्ब नहीं करना चाहिये / इस विचारके उत्पन्न होतेही वह चारों तरफ़ देखने लगा। यह देख, सबसे छोटी गुण सुन्दरीने पूछा,"हे नाथ ! क्या आप शौचको जाया चाहते हैं ?" उसने उत्तर दिया,"हाँ" यह सुन, गुण सुन्दरी उसका हाथ पकड़े हुई नीचे ले आयी / वहाँ पहुँच कर उसने अपना परिचय देनेके लिये खड़ियांसे यह श्लोक चौकठ पर लिख दिया, __ "गोपालपुरादागां, वल्लभ्यां दैवयोगतः / परिणीय वधूः सप्त, पुनस्तत्र गतो स्म्यहम् // 1 // अर्थात्-मैं दैवयोग से गोपालपुर से वल्लभीनगरी में आ पहूँचा था और सात बहुओं से ब्याह कर फिर वहीं लौटा जा रहा हूँ। यह लिखकर वह उस घरके द्वारके पास पहुँचा, जिसमें उसकी सब स्त्रियाँ पहले श्लोकका अर्थ समझमें नहीं आनेके कारण शर्मायी हुई सोचमें पड़ी बैठी हुई थीं। वहाँ आकर उसने गुणसुन्दरीसे कहा,"तुम भीतर चली जाओ, जिसमें मैं निश्चिन्त होकर शौचसे निवृत्त हो जाऊँ।" यह सुनकर वह भी खामीको निश्चिन्ततासे शौचादिसे निवृत्त हो जानेके लिये छोड़कर घरके अन्दर चली आयी। इतनेमें पुण्यसार उस घरसे बाहर हो, नगरके बाहर हो गया और पूर्वोक्तवट-वृक्षके कोट .P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust