________________ तृतीय प्रस्ताघ / 123 एक कुन्दा रखकर उसपर कपड़ा फैला दिया और आप एक झाड़में जाकर छिप रहे तथा हाथमें खड्ग लिये रहे। थोड़ी देर बाद उस .चोरने उठकर राजाके भ्रममें उस लकड़ीके कुन्देपर खड्गका प्रहार किया, जिससे लकड़ी दो टुकड़े हो गयी। प्रहारके शब्दसे उसे कुछ खुटका हुआ, इसलिये उसने उसके ऊपरसे कपड़ा हटाकर जो देखा, तो महज़ लकड़ीका कुन्दा दिखाई दिया। कोई आदमी नज़र नहीं आया। यह देख, उसने सोचा,-"अरे ! उस धूर्त्तने तो मुझे खूब छकाया !" वह इसी तरह बैठा हुआ हाथ मल-मल कर पछता रहा था, कि इतने में राजाने उससे कहा,-"रे दुष्ट! आज तेरा अन्त-समय आ पहुँचा है। इसलिये यदि तुझमें तनिक भी पुरुषार्थ हो, तो मेरे सामने आ जा। यह सुन बहुत अच्छा, आता हूँ, कहता हुआ घह चोर राजाके पास आकर युद्ध करने लगा। दोनों खूब जमकर लड़े। दोनों एकसे बलवान् और युद्ध-कलामें कुशल'थे, इसलिये बड़ी देर तक लड़ाई होती रही। अन्तमें राजाने उस त्रिदण्डीके मर्मस्थानमें चोट पहुंचाकर उसे पृथ्वी पर गिरा दिया। उस प्रहारसे व्याकुल होकर तस्करने राजासे कहा, "हे वीर योद्धा! मैं ही यह चोर , जिसकी चोरियोंसे यह सारा नगर आरी आ गया था / आज मेरी मृत्यु आ गयी। परन्तु हे वीर ! मेरी एक बात सुनो। इस देव-मन्दिरके पीछे एक बड़ा सा पाताल-मंन्दिर है। उसमें बहुतसा धन पड़ा हुआ हैं। वहीं पर मेरी बहन धनदेवी तथा इस नगरकी वे सब स्त्रियाँ भी हैं। जिन्हें मैं चुरा लाया हूँ / हे वीरवर ! तुम मेरी तलवार लिये वहीं चले जाओ। शिलाके विवरकी राह तुम मेरी बहनको मेरी तलवार दिखाकर मेरे मरनेकी खबर सुना देना / बस, वह तुम्हें भीतर ले जायेगी। उस समय तुम वह सब धनादि ले. लेना और जो कुछ जिसका हो, उसे दे देना / " यह कह कर वह चोर मर गया। उसके बाद रातको ही राजा उस पाताल-मन्दिरमें जाकर उसकी बहनसे मिले। उसने बड़े मीठे वचनोंसे राजाका स्वागत किया। 'GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust