________________ 118 श्रीशान्तिनाथ चरित्र / भोजन आदि दिया। जिन-जिन गृहस्थोंके यहाँ वह काम किया करती थी, उन लोगोंने भी उसकी तपस्या देखकर, उसे वे जितना भोजन-वस्त्र सदा देते थे, उससे दुगुना दे डाला। इससे उसके पास कुछ धन जुड़ गया / एक दिन उसके घरकी एक दीवार गिर पड़ी, जिसमें से बहुत धन * निकला। उस धनको लेकर उसने उद्यापन उजमना)प्रारम्भ किया तथा जिनचैत्योंकी विशेष पूजा की। अन्तमें उसने साधर्मिकवात्सल्य किया। उसी दिन उसके घर पर महीने भरसे उपवास किये हुए सुव्रत नामक महामुनि पधारे / श्रीदत्ताने तत्काल उन्हें बड़ी भक्तिके साथ शुद्ध भोजन कराया और पीछे भक्तिपूर्वक मुनिकी वन्दना की। इस प्रकार धर्मका प्रत्यक्ष फल देखकर उसने मन-ही-मन हर्षित होते हुए मुनिसे धर्मका रहस्य पूछा। मुनिने कहा,-"हे.भद्रे ! इस समय यहाँ पर धर्मका विचार करनेका नहीं है। यदि तुम्हें धर्मका रहस्य जानना हो, तो अवसरके समय उपाश्रयमें आकर विस्तारपूर्वक धर्मदेशना श्रवण करो।" यह कह, अपने स्थानपर जाकर, मुनिने विधिपूर्वक पारणा किया। इसके बाद जिस समय मुनि. खाध्याय-ध्यान कर बैठे हुए थे, उसी समय मौका देखकर नगरवासी लोगोंके साथ-ही-साथ श्रीदत्ता भी उपाश्रयमें आ पहुँची और मुनिको प्रणाम कर, उचित स्थानमें बैठ रही / मुनिने उसे धर्मलाभरूपी आशीर्वाद दिया। तदनन्तर श्रीदत्ता और नगर-निवासियोंके प्रतिबोधके लिये उन्होंने धम-देशना आरंभ की। उसमें उन्होंने कहा, "अयमों परोऽनर्थ-इति निश्चयशालिना। ___ भावनीया अस्थिमजा, धर्मेणैव विवेकिंना // 1 // " अर्थात्-'यही अर्थ है और सब अनर्थ है-इस प्रकारके निश्चयसे शोभित विवेकी पुरुष धर्मसे ही अपनी अस्थिमज्जाको भावित कर रखते हैं, अर्थात् यही सोच रखते हैं, कि अस्थिमज्जा-पर्यन्त धर्मका प्रचार करने योग्य है।" "विवेकी पुरुषोंको अपने मनमें यह विचार करना चाहिये, कि पर मार्थ-वृत्ति करके ( यदि ठीक-ठीक देखिये तो ) धर्मका आराधन करना ही आत्मकार्य है। इसके सिवा और सब सांसारिक व्यापार अनर्थके P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust