________________ श्रीशान्तिनाथ चरित्र। नहीं है। " यह धैर्य-वचन सुन, दोनों भाइयोंके चित्तमें बड़ी शान्ति आयी। तब देवी अनुकूल वचन बोलने लगी,- “मेरे प्राण-प्यारों ! तुम लोग मुझे इस तरह अकेली छोड़ कर कहाँ चले जा रहे हो ? " इस दीन-वचनसे भी उनके चित्त चंचल नहीं हुए। तब उसने अकेले जिनरक्षितसे कहा,-"जिन-रक्षित! तुम मेरे परम प्रिय हो। तुम्हारे ऊपर मेरा स्नेह निश्चल है। अब मैं तुम्हारे न रहने पर किसके साथ विषय-सुख भोगूगी ? तुम्हारे वियोगमें मैं ज़रूर मर जाऊँगी / खैर एक बार मेरी ओर देख तो लो, जिसमें मैं मरते समय भी तो थोड़ी शान्ति पा जाऊँ / " उसके इन माया-युक्त वचनोंको सुनकर जिनरक्षितको बड़ा दुःख हुआ और उसने देवीके साथ आँखें चार की / बस शैलक यक्षने उसे तत्काल अपनी पीठ परसे उतारकर नीचे फेंक दिया। देवीने उसे समुद्रके जलमें फेंक डालनेके पहले त्रिशूलसे बींधकर कहा:- "रे पापी! ले, मेरे साथ धोखेबाज़ी करनेका फल भोग।" यह कह, उसने उसे खड्गसे चीर डाला। इसके बाद वह माया-जाल फैलाकर जिन / पालितको फंसाने आयीं। यह देख, यक्षने कहा,- "यदि तूने इसकी बातों पर ज़रा भी ध्यान दिया, तो तेरी गतिभी जिनरक्षितके ही समान होगी।" यक्षकी यह बात सुन, वह और भी दृढ़ हो गया और उसकी कपट-रचनाकी उपेक्षा कर, यक्षकी सहायतासे सकुशल चम्पापुरीपहुँच गया। वह भूतनी निराश होकर पीछे लौट गयी। यक्ष भी उसे उसके . घर पहुँचाकर पीछे लौट गया। उस समय जिनपालितने उससे अपने. अपराधोंकी क्षमा मांगी और विनय-पूर्ण वचनोंसे उसकी प्रशंसा की। .. अपने घर पहुँच कर जिनपालित अपने स्वजनोंसे मिला और बड़े शोक भरे स्वर में अपने भाईके मरनेका हाल उन्हें कह सुनाया / सेठ माकन्दी अपने पुत्र की मरण क्रिया कर, एकही पुत्र और अन्य स्वजनों के साथ गृहधर्मका पालन करने लगा। एक दिन श्रीमहावीरस्वामीने उस पुरीके उद्यानमें पदार्पण किया / माकन्दी और जिनपालित. आदि प्रभुकी वन्दना करनेके लिये आये और भगवानकी देशना श्रवणः ..