________________ 104 श्रीशान्तिनाथ चरित्र। इसके बाद जब वे बारहवीं बार धन कमानेके लिये जलके मार्गसे जानेको तैयार हुए, तब उनके पिताने कहा,-"पुत्रो ! अपने घरमें धनकी कोई कमी नहीं है। तुम लोग जैसे चाहो, इस धनको दान और भोगमें खर्च करो। ग्यारह बार तो तुम लोग क्षेम-कुशलसे यात्रा कर आये; पर कहीं इस बार विघ्न हुआ, तो ठीक नहीं होगा, इसलिये बहुत लोभ करना उचित नहीं / यदि मेरी बात मानो, तो तुम लोग घरही रहो।" पिताकी यह बात सुन, उन दोनोंने कहा,-"पिताजी ! ऐसी बात न कहिये / इस बारकी यात्रा भी आपकी कृपासे सकुशलही बीतेगी।" यह कह कर उन दोनोंने किरानेका बहुतसा माल जहाज़ पर लादा और जल, ईंधन इत्यादि सामग्रियों के साथ जहाज़ पर सवार हो, समुद्रकी राह चल पड़े। क्रमशः वे मध्य समुद्र में आ पहुँचे। इतने में मेघ घिर आनेसे अन्धकार होने लगा, आकाशमें बादल गरजने लगे, विजली चमकने लगो और बड़े जोरकी आँधी चलने लगी / दैव-योगसे वह जहाज़ क्षण भरमें टूट गया। जहाज़ पर जितने लोग सवार थे, वे सबके सब डूब गये। उस समय जहाजके स्वामी जिनपालित और जिनरक्षितको एक तख्ता हाथ लग गया, जिसे उन्होंने बड़ी मज़बूतीसे पकड़ लिया। उसेही पकड़े हुए वे तीसरे दिन रत्नद्वीपमें आ निकले। वहाँ पहुँच कर वे नारियलके फल खा-खाकर जीवन-निर्वाह करने लगे और नारियलका तेल शरीरमें लगाकर सुन्दर देहवाले होकर वहीं रहने लगे। . एक दिन कठोर, निर्दय और तीक्ष्ण खग हाथमें लिये, उस द्वीपकी अधिष्ठात्री देवीने उनके पास आकर कहा,-"यदि तुम मेरे साथ विषय-भोग करो, तब तो तुम यहाँ कुशलसे रह सकोगे,नहीं तो मैं इसी खङ्गसे तुम्हारे सिर काट डालूंगी।" यह सुन, उन्होंने भयभीत होकर कहा,- "हे देवी! अपने जहाज़के टूट जानेसे हम यहाँ तुम्हारी शरणमें आ पहुँचे हैं / अब जो कुछ तुम्हारी आज्ञा होगी, वह करनेके लिये हम तैयार है। यह सुन, प्रसन्न होकर वह देवी उनको अपने घर.ले )