________________ श्रीशान्तिनाथ-चरित्र। सार्थपति! मैं भरतक्षेत्रका रहनेवाला हूँ। जातिका बणिक मैं धन-उपार्जन करनेके लिये, अपनी प्रियतमाके साथ जहाज़ पर सवार हो, कटाह-द्वीपकी ओर चला जा रहा था। दैवयोगसे मेरा जहाज समुइमें टूट गया और मैं स्त्री सहित यहीं आ निकला। प्यासके मारे. प्याकुल होकर मेरी स्त्री जलकी तलाशमें घूमती-घामती इसी कुएँ के पास आयी और झाँककर पानी देखते-देखते कुएं में गिर पड़ी। मैं भी उसके स्नेहके मारे उसके पीछे-पीछे कूद पड़ा; पर भाग्यसे हम दोनों कुएँ की मेखला पर ही रहे, पानी में नहीं गिरे / इस कुएं में रहने वाली जल देवीने प्रसन्न होकर मुझे बहुतसे रत्नालङ्कार आदि दिये और यह कहा, कि कुछ दिन याद यहाँ एक जहाज़ आयेगा। तुम उसीपर बैठकर सुखसे अपने घर चले जाना। भाई सार्थवाह ! यही तो मेरी रामकहानी है। अब तुम कुछ अपनी कथा सुनाओ, जिससे परस्पर प्रीति बढ़े।" ____ यह सुन, देवदत्तने कहा, -- “हे भद्र! मैं भी भरतक्षेत्रका ही रहने घाला हूँ। मैं भी कटाह-द्वीपसे लौटा हुआ अपने घर जा रहा हूँ। तुम खुशीसे मेरे साथ चलो, हम लोग एक साथ चले जायेंगे, तुम अपनी प्रिया और समस्त वस्तुओंको मेरे जहाज़ पर चढ़ा दो।" - उसकी यह बात सुन, धनदने कहा,-"अच्छी बात है। ऐसा ही करो। भाई सार्थेश ! यदि मैं अपने घर पहुँच गया तो इन रत्नोंमेंसे छठा हिस्सा तुम्हें दे डालूंगा। यह सुन, सार्थवाहने कहा,-"भाई! यह असार धन तो कोई चीज़ नहीं है, तुम्हारी यह भक्ति ही सब कुछ है।" - इसके बाद सार्थवाहने उसकी कुल चीजें अपने जहाज़ पर लदवादी, जहाज़ आगे बढ़ा। रास्तेमें उस दुष्टात्मा सार्थवाहका चित्त नी और धन देखकर डावाँडोल हो गया और वह धनदकी बुराई करनेको उतारू हो गया। एक दिन रात के समय धनद शौच जाने के लिये मञ्च पर बैठा था, उस समय सब लोग सो रहे थे। इसी समय सार्थवाहने चुपचाप उसके पास आकर उसे मञ्च परसे समुद्र में ढकेल दिया। कुछ दूर आगे बढ़ने पर सार्थवाहने शोर मचाना शुरू किया। भाइयो! मेरे प्राणप्रिय