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सेतुबन्धम्
[ द्वितीय
विमला-जैसे हरि ने (बलि को छलते समय) कार्यवश बलि से याचना करते समय वामन शरीर धारण कर, डग भरते समय अपने विशाल शरीर से लौनों लोकों को व्याप्त कर दिया था, वैसे ही समुद्र, स्थिति (मर्यादा) से अपने स्थान में (पेट में) ही अमा जाता है, किन्तु प्रलय के समय महीमण्डल में भी नहीं भमाता | अथ लोकोत्तरत्वमाहदोसन्तं अहिराम सुन्वन्तं पि अविइलसो अवगणम् ।
सुक अस्स व परिणाम उअहुज्जन्तं पि सास प्रमुहप्फलप्रम् ।।१०॥ [दृश्यमानमभिरामं
श्रूयमाणमप्यवितृष्णश्रोतव्यगुणम् । मुकृतस्येव परिणाममुपभुज्यमानमपि स्वाश्रयशुभ-(शाश्वतसुख)-फलदम्॥]
दृग्विषयः सन्पोतमकरकम्बुकल्लोलादिभिरतिरमणीयः । श्रुतिविषयः सन्नवितृष्णं श्रोतव्या बृहत्त्वसूचकाः पूर्वोक्ता एव गुणा यस्य तादृक् । तथा स्नानपानावगाहनादिभिरुपभुज्यमानः सन्स्वमाश्रयो यस्य तादृक् शुभं श्वेतं फलं मुक्तादि तदाता यस्तमित्यर्थः । उत्प्रेक्षते-कमिव । सुकृतस्य पुण्यस्य परिणाममन्त्यभागमिव । सोऽपि करितुरगादिसमृद्धिद्वारा दृश्यमानो रमणीयः षष्टिवर्षाद्यवच्छिन्नफलजनकत्वेन भूयमाणः सन्सश्लाघश्रोतव्यतथाविधस्वर्गादिगुणः । एवमुपभोगविषयीक्रियमाणः सशाश्वतं सादिकं सुखस्वरूपं यत्फलं तत्प्रद इत्यर्थः । सुकृतपरिणामेनैव समुद्रदर्शनं भवतीति भावः ॥१०॥
विमला-समुद्र दृश्यमान होते हुए भी ( पोत-मकर-कम्बु-कल्लोलादि से) उत्तरोत्तर रमणीय लगता है, श्रूयमाण होते हुये भी(पूर्वोक्त महत्त्वसूचक) उसके गुण श्लाघा से श्रोतव्य ही बने रहते हैं, (स्नान-पान-अवगाहन आदि से) उसका उपभोग किया जा रहा है, तथापि शुभ फल (मुक्ता आदि) को देने वाला है। यह मानों सुकृत का वह परिणाम है जो (अश्व-गज आदि समृद्धि से) दृश्यमान होते हुए भी उत्तरोत्तर रमणीय लगा करता है, (कालान्तर में फलोत्पादक के रूप में) श्रूयमाण होने पर भी उसके स्वर्गादिगुण श्रोतव्य ही बने रहते हैं तथा जो उपभुज्यमान होते हुए भी शाश्वतिक सुखस्वरूप फल देता है ।।१०॥ मथ नानागुणानाह
उक्खअदुमं व सेलं हिमहअकमलाअरं व लच्छिविमुक्कम् । पीअमइरं व चस बहुलपओसं व मुद्धचन्दविरहिअम् ॥११॥ [उत्खातद्रुममिव शैलं हिमहतकमलाकरमिव लक्ष्मीविमुक्तम् । पीतमदिरमिव चषकं बहुलप्रदोषमिव मुग्धचन्द्रविरहितम् ।।]
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