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नाश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम्
[३४६ विमला-यह रात में अत्यन्त प्रकाशित शिखर-रत्नों से व्याप्त है। यहां शिखरों की घासों को चर कर मृग सुख से ( निःष्पन्द ) बैठे हैं। यह मानों कुपित राम के द्वारा भेदे गये उदधिरूप दृढ शर से प्रेरित है-राम के शराभिघात से उछले हुये समुद्र से आक्रान्त है एवं शिखर-सम्बद्ध चन्द्रमण्डल की सुधा का क्षरण होने से यह आर्द्र है ॥१८॥ अत्युच्चतामाहदूरोवाहिअमूलं रविअरवोलीणसिहरणट्ठालोअम् । अद्धथमिआआमं जहेअ उअहिसलिले तहेअ णहमले ॥ १६ ॥ [दूरापवाहितमूलं रविकरव्यतिक्रान्तशिखरनष्टालोकम् ।
अर्धास्तमितायामं यथैवोदधिसलिले तथैव नभस्तले ॥]
एवं दूरं व्याप्यापवाहितमधःप्रापितं मूलं येन तम् । पातालाक्रान्तमूलमित्यर्थः । एवं रविकरव्यतिक्रान्तेषु शिखरेषु नष्ट आलोकस्तेजो यत्र । तेन तेषु तमोमयम् । आलोको दर्शनं वा यस्य । तेन वा तदवच्छेदेनादृश्यम् । 'आलोकौ दर्शनोदययोती' इत्यमरः । अत एव यथैवोदधिसलिले मूलावच्छेदेनार्धास्तमितायामं अर्धेऽस्तमितो नष्ट इवायामो देध्यं यस्य तथा तथैव नभस्तलेऽपि शिखरावच्छेदेनेत्यर्थः । एकत्र सलिलच्छन्नतया परतस्तेजोविरहेणादृश्यत्वात् । तथा च मध्यावच्छेदेनैव दृश्यमिति भावः ॥१६॥
विमला-इतने अपने मूलभाग को नीचे बहुत दूर तक पहुंचा दिया है तथा सूर्य की किरणों से अत्यन्त अतिक्रान्त शिखरों में उस ( सूर्य) का तेज खो गया है, अतएव जिस प्रकार इसका विस्तार सागरस लित में ( सलिलाच्छन्न होने से) अदृश्य है, उसी प्रकार नभस्तल में भी ( सूर्य का तेज खो जाने से ) अदृश्य है ( केवल इसका मध्य भाग ही दृश्यमान है ) ॥१६॥ चन्दनवत्तामाह
पवणन्दोलिअचन्दणसंघटुठ्ठि असुगन्धिधूमुप्पीडम् । दरपीओअहिगरुइअसेस द्धन्तजल आवलम्बिअसिहरम् ॥ २०॥ [पवनान्दोलितचन्दनसंघट्टोत्थितसुगन्धिधूमोत्पीडम् ।
दरपीतोदधिगुरुकितशेषार्धान्तजलदावलम्बितशिखरम् ॥] एवं पवनेनान्दोलितानां चन्दनानां मिथः संघट्टे नोत्थितः सुगन्धिधूमस्योत्पीडो यत्र तम् । धूममयमित्यर्थः । एवं दरपीतोदधिरीषत्पीतसमुद्रजलोऽत एव गुरुकितः शेषार्धान्तः पश्चाद्भागो यस्य तथाविधेन जलदेन' अवलम्बितं शिखरं यस्य । जलपानहेतुकगुरुत्वनिबन्धनपतनभयादिति भावः ॥२०॥
विमला-पवन' द्वारा आन्दोलित चन्दनतरुओं के पारस्परिक संघर्षण से उत्पन्न सुगन्धित धूमराशि से यह युक्त है एवम् [ ईषत् ] थोड़ा-सा समुद्रजल
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