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सेतुबन्धम्
[ नवम
चन्द्रयोः पन्था ज्ञायते । तारकाणां तु तथाविधचिह्नाभावात्स्वतः कृशत्वाच्च न ज्ञायत इत्यर्थः ।।२।।
विमला-इस सुवेल पर्वत पर सूर्य के मार्ग का पता यों चल जाता है कि उसमें पड़ने वाले वृक्ष ( आतप से) शुष्क हो गये हैं और चन्द्रमा के मार्ग का भी ज्ञान इससे हो जाता है कि वह नूतन वनराजि से सुखद एवं शीतल है। केवल तारों से गतिमार्ग का ज्ञान नहीं हो पाता, क्योंकि उसका कोई वैसा चिह्न नहीं है और वन के मध्य में पड़ने से तारे स्वतः कृश भी हैं ॥१२॥ देवस्त्रीसंचारमाहअलअपडिलग्गगन्धं तिप्रसवहूणं सिलाअलोत्थअमलिअम् । अक्खिवइ जत्थ पवणो ओसुक्खन्तसुरहिं तमाल किसलअम् ।।३।। [ अलकप्रतिलग्नगन्धं त्रिदशवधूनां शिलातलावस्तृतमृदि(मलि )तम् ।
आक्षिपति यत्र पवनोऽवशुष्यत्सुरभिं तमालकिसलयम् ॥] यत्र पवन स्त्रिदशवधूनां तमालकिसलयमाक्षिपति । कर्णात्पातयतीत्यर्थः । कीदृशम् । अलकेषु प्रतिलग्नः संक्रान्तो गन्धो यस्य । सहवासादलकान्प्रतिलग्नो गन्धो यत्रेति वा। गन्धलादिसंबन्धात् । भत एवावशुष्यत् सुरभिम् । एवम् शिलातलेऽवस्तृतम् । अत एव शयनेन गण्डघृष्टया मृदितम् । अथवा-त्रिदशबधूनामिति तृतीयार्थे षष्ठी। तथा च यत्र गिरी पवन स्त्रिदशवधूभिः शिलातले. ऽबस्तृतं शयन परिस्तरणीकृतं सन्मृदितं घुष्टं तमालकिसलयमाक्षिपति । दिशि दिशि प्रेरयतीत्यर्थः । विशेषणान्तरं तु पूर्ववत् ॥१३॥
विमला-इस सुवेल पर सुरवालाओं ने जिन तमाल-किसलयों को शिलातल पर बिछाया था और शयन करने से कपोल के घर्षण से जो मींज उठे हैं एवं जिनकी सुगन्ध ( अब भी) सुरबालाओं के अलकों में संक्रान्त है, उन्हें वायु इधर-उधर उड़ा रहा है और उनकी सुगन्ध अब ( धीरे-धीरे ) समाप्त होती जा रही है ॥६॥ मेघानां गतागतमाह
पवणाहप्रपल्हत्था दरोसु नस्स अ पुणो वि लग्गन्ति णहम् । पटिसोत्तपस्थिउम्मुहमुहुत्तपीअसलिलोज्झरा सलिलहरा ॥१४॥ [ पवनाहतपर्यस्ता दरीषु यस्य च पुनरपि लगन्ति नभः । प्रतिस्रोतःप्रस्थितोन्मुखमुहूर्तपीतसलिलनिर्झराः सलिलधराः ॥]
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