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४८६ ] . सेतुबन्धम्
[ एकादश किया) आप का यह कार्य पुरुष के योग्य ही है, रावण ने भी ( चोरी से जो मेरा अपहरण किया और आप को भी मार कर मुझे दिखाया ) राक्षसोचित कर्म किया तो महिलोचित चिन्तित सुलभ मेरा ही मरण कर्म क्यों नहीं सम्पन्न हो रहा है ( जिसके लिये जो योग्य था उसने वह किया किन्तु मैंने नहीं किया, अतः मैं निन्दनीय हूँ)॥ १०५ ।।
पवणसुप्रसिट्ठरिअं इह एन्तस्स अवलम्बिउ मह जीअम् । विरहल हुअं वि राहव मए जिअन्तीम जीविरं तुज्झ हिअम् ॥१०६॥ [ पवनसुतशिष्टत्वरितमिहागच्छतोऽवलम्बितुं मम जीवम् ।
विरहलघुकमपि राघव मया जीवन्त्या जीवितं तव हृतम् ।।]
सीता जीवतीति पवनसुतेन शिष्टे कथिते सति त्वरितं यथा भवत्येवं विरहेण लघुकमपि गत्वरमपि मम जीवमवलम्बितुरक्षितुमिहागच्छतस्तव जीवितं जीवन्त्या मया हुतम् । यदि विरहात्तदैवामरिष्यम्, तदा मृतवाहमिति ज्ञात्वा त्वमपि नागमिष्यः । तत्कथमिमामवस्थामासादयिष्य इति भावः ।।१०६॥
विमला-'सिता जी रही है'-ऐसा हनुमान के कहने पर आप, विरह से गतप्राय मेरे जीव को बचाने के लिये यहाँ आये किन्तु जी कर भी मैंने आप के जीवन का हरण किया-यदि पहिले ही मर गयी होती तो हनुमान् से मेरे मर जाने का समाचार पाकर आप भी न यहाँ आते और न इस दशा को प्राप्त होते ॥१०६॥ अथ पुनरस्या मोहमाहअलअन्धआरिअमुही समुहागअकण्ठभमिप्रवेणीबन्धा । मोहपडिवण्ण हिमश्रा वरजम्पिअणीसह पुणो वि गिसण्णा ॥१०७१ [ अलकान्धकारितमुखी संमुखागतकण्ठभ्रमितवेणीबन्धा।
मोहप्रतिपन्नहृदया दरजल्पितनिःसहं पुनरपि निषण्णा ॥ अलकैविकीर्णतया श्यामत्वेनान्धकारीकृतं मुखं यस्याः, तथा संमुखागतः सन् कण्ठे भ्रमितो वेणीबन्धो यस्याः, इतस्ततः संचारात । सा सीता मोहेन' प्रतिपन्नमाक्रान्तं हृदयं यस्यास्तथा सती ईषज्जल्पितेनापि निःसहं कण्ठादिशोषादसामथ्य यथा तथा निषण्णा पुनरपि मह्यां निपतितेत्यर्थः । निःसंज्ञा वासीदित्यर्थः ॥१०७॥
विमला-थोड़ा भी बोलना सहय न होने के कारण सीता का हृदय मोहाक्रान्त हो गया और वे पृथिवी पर पुनः गिर गयीं। उनके मुख को ( बिखरी ) अलकों ने आच्छादित कर अन्धकारमय कर दिया एवं वेणी सामने आकर कण्ठ में संचरणशील हुई ।। १०७ ॥ भूमो पतनमेव स्फुटयति
तो फुडिअवेणिबन्धणभङ्गग्गअविसमकेसपल्हत्थरणे । पडिआ रामोरत्थलसअणणिरासहिअआ महिअलच्छङ्ग ॥१०८।।
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