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सेतुबन्धम्
[ त्रयोदश
विमला - रजसमूह पृथिवी पर घना था, किन्तु कुछ ऊपर पहुँच कर वही धूल फैल जाने से विरल हो गयी और आकाश में पहुँचने पर पुञ्जित एवं विस्तृत हो गयी, अतएव गुरुता के कारण सकल दिशाओं में गिरने लगी ।। ५०||
अथैषामेकीभावमाह
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मुअइ भरेइ ण वसुहं गोड दिसाहि थएइ णु दिसाक्कम् । अद्दिट्ठणिग्गमवही पडइ हाहि गाणं विलग्गइ णु रओ ।। ५१ । [ मुञ्चति बिर्भात नु वसुधां निरैति दिग्भ्यः स्थगयति नु दिक्चक्रम् | अदृष्ट निर्गमपथं पतति नभसो गगनं विलगति नु रजः ॥ ]
जो वसुधां मुञ्चति तु । अन्यत्र गमनात् । अथवा बिर्भात पूरयति नु । वसुधा- यामेव घनीभूय स्थितत्वात् । अथ - दिग्भ्यो निरैति निर्गच्छति नु । अत्रैव ततः -समागमादित एव गमनाद्वा । दिक्चक्र स्थगयति व्याप्नोति नु । अथवा अत्रैव नभसः पतति नु । इतो गमनं विलगति आक्रामति नु । सर्वत्र हेतुमाह - अदृष्टो निर्गमस्य प्रादुर्भावस्य पन्था यस्य तत् । तथा च- - सर्वत्र स्त्यानीभूतत्वेन कुतो निर्गच्छति वा गच्छतीत्येतरनिश्चयाभावादवस्तिर्यगूर्ध्वप्रसरण वितर्केण सकलव्यापकत्व - -मुक्तम् ।। ५१ ।।
विमला -- सर्वत्र धूल की प्रगाढता के कारण यह निश्चय नहीं हो पाता था कि धूल कहाँ से उद्भूत हो रही है और कहाँ जा रही है । धूल पृथिवी को छोड़ रही है या पूर्ण कर रही है, दिशाओं से पृथिवी पर आ रही है या पृथिवी से उठकर दिशाओं को आच्छादित कर रही है, आकाश से पृथिवी पर गिर रही है या पृथिवी से आकाश को आक्रान्त कर रही है ॥५१॥
अथैषां सर्वदेहव्यापकत्वमाह -
दीसइ रअणि अरबलं पवङ्गजोहेहि मंसलर अन्तरिअम् । प्रोसाहप्रस्स ठिअं पुरओ मणिपब्वअस्स व हअच्छाअम् ।। ५२ । [ दृश्यते रजनीचरबलं रजनीचरबलं प्लवङ्गयोधैर्मांसलरजोन्तरितम् ।
अवश्यायहतस्य स्थितं पुरतो मणिपर्वतस्येव हतच्छायम् ॥ ]
प्लवङ्गयोधैः सह मांसलैर्घनै रजोभिरन्तरितं छन्नमत एव हतच्छायं हतप्रभं रजनीचरबलं दृश्यते । किंभूतमिव । अवश्यायेन तुषारेण हतस्य च्छन्नस्य मणिप्रधानपर्वतस्य पुरतः स्थितमिव । तथा च - स्वभावेन क्रोधेन चारुणवर्णाः प्लवङ्गा अपि रजश्छन्ना इत्यवश्यायच्छन्न मणिपर्वतत्वेनोपमिता इति सर्वेपां धूलिच्छन्नत्वमुक्तम् ।। ५२ ।।
विमला - वानरयोद्धाओं समेत रजनीचर- सेना प्रगाढ धूल से आच्छादित, अतएव तुषाराच्छादित मणिपर्वत के सामने स्थित सी हतप्रभ दिखायी देती थी ।
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