Book Title: Setubandhmahakavyam
Author(s): Pravarsen, Ramnath Tripathi Shastri
Publisher: Krishnadas Academy Varanasi

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Page 660
________________ भाश्वासः ] रामसेतुप्रदीप - विमलासमन्वितम् [ ६४३ विमला - भुजद्वय के गिरने के अनन्तर कान तक खींचे गये, चक्राकार अग्नि की लपटों वाले राम के बाण ने कुम्भकर्ण के तुङ्ग सिर को उसी प्रकार खण्डित कर दिया, जिस प्रकार चक्र ने राहु के सिर को काट गिराया था ||२०|| अथ शिरःपतनमाह - गअणुण्ण एण तेण 只 पवणभरेन्तमुहकन्दरामुहलेण । छिणपडिएन वि कओ चउत्तुङ्गसिहरुगमो व तिऊडो ||२१|| [ गगनोन्नतेन तेन च पवनभ्रियमाणमुखकन्दरा मुखरेण । छिन्नपतितेनापि कृतश्चतुर्थ तुङ्गशिखरोद्गम इव त्रिकूट: ॥ ] पुनर्गगनं व्याप्योन्नतेन च्छिन्नपतितेनापि तेन शिरसा त्रिकूट: सुवेलश्चतुर्थस्य तुङ्गस्य शिखरस्योद्गम उत्पत्तिर्यत्र तथाभूत इव कृतः । त्रयाणां विद्यमानत्वाच्चतुर्थं तदेव शिरो जातमित्युत्प्रेक्षा । किंभूतेन । पवनेन श्रियमाणा पूर्यमाणा या मुखमेव कन्दरा तथा मुखरेण शब्दायमानेनेत्यवकाशातिशयादस्य महत्त्वमुक्तम् । शिखरमपि तादृशकन्दरा मुखरमिति साम्यम् ||२१|| विमला - कट कर गिरे हुये भी गगन तक ऊंचे उस ( कुम्भकर्ण के ) सिर ने, वायु द्वारा मुखरूप कन्दरा के पूरित होने से शब्दायमान होने के कारण मानों सुवेल पर्वत को उद्गत चतुर्थ उन्नत शिखर वाला कर दिया ॥ २१ ॥ अथ कबन्धपतनमाह पडिए कुम्भप्रण्णे दूरपलाश्रदर भग्गपक्कग्गाहो। देहभरन्तुच्छङ्गो पब्बालेइ वडवागृहं मनरहरो ॥२२॥ [ पतिते च कुम्भकर्णे दूरपलायितदरभग्नप्रग्राहः । देहभ्रियमाणोत्सङ्गः प्लावयते वडवामुखं मकरगृहः ॥ ] च पुनः कुम्भकर्णे पतिते सति मकाराणां गृहं यत्र स समुद्रो वडवामुखं वडवाग्नि प्लावयति व्याप्नोति । कीदृशः । दूरं पलायितः सन् भग्नः क्षोणिक्षोभसंभूतः परस्परसंघट्टा देहाभिघाताद्वा अन्यथा संस्थितावयवः प्रगाहो जलसिंहो यत्र स तथा पक्कग्गाहो देशी वा । अत्र हेतुमाह - देहेन कबन्धेन श्रियमाणः पूर्यमाण उत्सङ्गो यस्य तत्रैव पतितत्वादिति वडवानलप्लावनेन (?) तदा ह्यस्यापि जलस्यादाहादाधिक्यं ते च समुद्रशोभाधिक्यात्कबन्धस्य महत्त्वमुक्तम् ॥ २२ ॥ विमला — कुम्भकर्ण के गिरने पर उसके देह ( कबन्ध ) से समुद्र का उत्सङ्ग भर गया, अत एव दूर भागते हुये जलसिंहों के शरीरावमव आपस में टकराने से कुछ भग्न हो गये और समुद्र ने वडवानल को चारो ओर फैला दिया ||२२|| अथ रावणस्य रोषमाह - तो कुम्भण्णणिहणं सोऊण दसाणको पहत्थग्भहिअम् । रोसा अवरज्जन्तं पुणो वि हसिऊण घुणइ महसंघाअम् ||२३| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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