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आश्वास : ]
रामसेतु प्रदीप - विमलासमन्वितम्
[ ६५६
आप अमर्ष न करें । वनगज ( पर्वतादि के ) तुङ्ग तट को ही गिराता है, नदीतट अथवा समभूमि को नहीं ||५७||
स्वयं सामर्थ्यऽपि प्रभुणा परिजन एव भारो निधीयत इति दृष्टान्तयन्नाहपज्जसस्स समत्थं दहिउ अद्धच्छिपेच्छिएण वितिउरम् । रहुब कि व्व ण सुव्वद्द आणत्ती तिणम्रणस्स तिनसेहि कमा ।।५८ ॥ [ पर्याप्तस्य समस्तं दग्धुमर्धाक्षिप्रेक्षितेनापि त्रिपुरम् ।
रघुपते किंवा न शृणोषि आज्ञप्तिस्त्रिनयनस्य त्रिदशैः कृता ॥ ]
हे रघुपते ! किंवा न शृणोषि न श्रुतवानसि त्रिनयनस्याज्ञप्तिराज्ञा त्रिदशैः कृता । त्रिपुरवध इत्यर्थात् । किंभूतस्य । अर्धाङ्क्षिप्रेक्षितेनापि कटाक्षमात्रेण समस्तं त्रिपुरं दग्धुं पर्याप्तस्य समर्थस्य । तथा चेतरासाध्यमेव प्रभुणा साध्यत इति
भावः ॥५५॥
विमला - रघुपते ! क्या आपने नहीं सुना है कि देवताओं ने ( स्वयं वध करना शोभोत्पादक नहीं होगा - यही सोच कर ) त्रिपुर का वध करने के लिये त्रिनयन (शिव) को आज्ञा दी थी, क्योंकि वे (शिव) कटाक्ष मात्र से त्रिपुर को भस्म करने में समर्थ थे ( तब देवताओं को क्या पड़ी थी कि स्वयं छोटा काम करते ) ।।५८ ||
अथ रामस्य प्रत्युत्तरमाह
तो
दहवअणालोझणरोसुग्ग असे प्रलङ्गि अणिलाडगडो ।
पुलइअणीलर विसुओ पणअं पडिभणइ लक्खणं रहुणाहो || ५६ ॥ [ ततो दशवदनालोकनरोषोद्गतस्वेदलङ्घितललाटतटः ।
प्रलोकितनीलरविसुतः प्रणतं प्रतिभणति लक्ष्मणं रघुनाथः ॥ ]
ततो लक्ष्मणवचनोत्तरमवलोकितनीलसुग्रीवः सन् प्रणतं लक्ष्मणं रघुनाथः प्रतिभणति । किंभूतः । दशवदनालोकनाद्रोषेणोद्गतः स्वेदैर्लङ्घितमतिक्रान्तं ललाटतट यस्य (?) तीर्ष्याक्ता ॥५६॥
विमला- - लक्ष्मण के कह चुकने के बाद राम, जिनका ललाट रावण को देख कर क्रोधजन्य स्वेद से अतिक्रान्त था, ने नील-सुग्रीव की ओर देखकर, प्रणत लक्ष्मण से ( वक्ष्यमाण वचन ) कहा ।। ५६ ।।
प्रत्युत्तरवाक्य माह
निव्वढजविप्राणं आसङ्घइ तुम्ह ववसिअं मह हिअअम् । कि उण भरो व्व होहिइ सअ अणिट्ठविप्रदहमुद्रो मज्झ भुओ ॥ ६०॥
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