Book Title: Setubandhmahakavyam
Author(s): Pravarsen, Ramnath Tripathi Shastri
Publisher: Krishnadas Academy Varanasi

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Page 685
________________ ६६८] सेतुबन्धम् [पञ्चदश अथ रावणस्य शिरश्छेदमाह णवरि अ सो रहुवइणा वारं वारेण चन्दहासच्छिण्णो । एक्केण सरेण लुओ एक्कमहो दहमुहस्स महसंघाप्रो ।।७६॥ [अनन्तरं च स रघुपतिना वारं वारं चन्द्रहासच्छिन्नः । एकेन शरेण लून एकमुखो दशमुखस्य मुखसंघातः ॥] धनुराकर्षणानन्तरं च रघुपतिना दशमुखस्य मुखसमूह एकेन शरेण एक मुखमुपक्रमो यस्य स एकोपक्रमः सन् लूनः । एकदैव च्छिन्न इत्यर्थः । कीदृक् । वारं वारं शिवाराधनसमये चन्द्रहासेन रावणखड्गेन छिन्नोऽपि । तथा च य एव क्रमिकच्छेदेन पुनः पुनरुत्तिष्ठति स एव रामशरेण एकदा खण्डित इति पुनरनुस्थानं व्यज्यते । रामेणव पूर्व भूयो भूयश्चन्द्रहासेन क्रमशश्छिन्नत्वादुत्थित इति तदानीमेकदैव शरेण छिन्नत्वानोत्थित इति केचित् ॥७॥ विमला-धनुष खींचने के बाद राम ने एक ही बाण से रावण के दसो शिरों को एक साथ इसलिये काटा । क्योंकि ( शिवाराधन के समय ) चन्द्रहास ( रावण के खड्ग ) से बार-बार (कम से ) काटे जाने पर वे पुनः उठ खड़े हुये थे ।।७।। अथ रावणपतनमाह अविहत्तकण्ठगाओ छिन्नो वि दसाणणस्स होइ भअप्ररो। धरणिअलुत्तिण्णस्स व णिमअच्छेअपडिउठ्ठिनो मुहणिवहो ।।८०॥ [ अविभक्तकण्ठगुरुकश्छिन्नोऽपि दशाननस्य भवति भयङ्करः। धरणीतलोत्तीर्णस्येव निजकच्छेदप्रत्युत्थितो मुखनिवहः ॥] धरणितल उत्तीर्णस्य भूमिपतितस्य दशाननस्य छिन्नोऽपि । मुखनिवहो भवकरो भवति। कीदृक् । अविभक्तकण्ठः सन् गुरुकः । कण्ठविभागाभावेनादरस्थानं जीवितत्वभ्रमादित्यर्थः। उत्प्रेक्षते-निजकच्छेदेभ्यः प्रत्युत्थित इव पूर्ववत्पुनरुत्पन्न इव । अतोऽप्यभिनवोत्पत्तिभ्रमेण सर्वेषामाशङ्काविषय इति भावः । छेदेऽपि कबन्धलग्नस्यैव भूमौ पतनमिति प्रहारलाघवमुक्तम् ॥८०॥ विमला-रावण का भूमिपतित सिरसमूह कटा हुआ होने पर भी कण्ठ से सम्बद्ध होने के कारण (जीवित होने के भ्रम से ) आदरणीय एवं भयंकर लग रहा था, मानों अपने काटे गये स्थान पर वह पूर्ववत् पुनः उत्पन्न हो गया था ।1८०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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