Book Title: Setubandhmahakavyam
Author(s): Pravarsen, Ramnath Tripathi Shastri
Publisher: Krishnadas Academy Varanasi

Previous | Next

Page 657
________________ ६४० ] सेतुबन्धम् [ पश्चदश विमला - अकाल में जागने से उस ( कुम्भकर्ण ) का माथा भारी हो गया, अत एव जम्हाई लेता हुआ कुम्भकर्ण रामवध की एक छोटी ( किन्तु अभीष्ट ) बात सुन कर चिरकाल तक हँसा और तब ( युद्धार्थ ) निकला ||१२|| अथैतस्य देहमहत्त्वमाह प्रोच्छुण्णरइरहवहो जाओ देहस्स से कण अपाआरो । ऊरुपएसालग्गो दरखलिओ व्व तवणिज्जराअपरिअरो ।। १३ ॥ [ आक्रान्तरविरथपथो जातो देहस्यास्य कनकप्राकारः । ऊरुप्रदेशालग्नो दरस्खलित इव तपनीयरागपरिकरः ॥ ] अस्य कुम्भकर्णस्य देहस्य ऊरुप्रदेशालग्नः कनकप्राकारो दरस्खलितस्त्रिकरूपस्वस्थानात्किचिदधोपसृत ऊरुलग्नत्वात्तपनीयस्य सुवर्णस्य रागो रञ्जनं यत्र स सुवर्णघटितः परिकर इव जातः । परिकरो मेखलावत्त्रिके निबध्यत इति समाचारः । स तु सुप्तोत्थितस्य शिथिलीभवत्येवेति ध्वनिः । कीदृक्प्राकारः । आक्रान्तो रविरथस्य पन्था येन स तावदुच्च इत्युत्प्रेक्षा ॥ १३॥ विमला - रविरथ के पथ को आक्रान्त करने वाला कनकप्राकार, इस ( कुम्भकर्ण ) के देह के जांघ प्रदेश तक ही ( ऊँचा ) लगा, मानों वह उस ( कुम्भकर्ण ) का सुवर्णनिर्मित परिकर था, जो ( सोकर उठने पर ) अपने स्थान ( कटिप्रदेश ) से नीचे खिसक कर जाँघ पर रुक गया था ॥१३॥ अथास्य प्राकारलङ्घनमाह लङ्घिअपाआरस्स अ तो से विवलाअमाणमअरप (क्क) ग्गाहा । जाणुष्पमाणसलिला जाओ फडिहागआ समुद्दद्धन्ता ॥ १४॥ [ लङ्घितप्राकारस्य च ततोऽस्य विपलायमानमकरप्रग्राहाः ॥ जानुप्रमाणसलिला जाताः परिखागताः समुद्रार्धान्ताः ॥ ] ततः सांनिध्यानन्तरं लङ्घितप्राकारस्यास्य कुम्भकर्णस्य जानुदघ्नसलिलाः सन्तः समुद्र क देशाः परिखागताः परिखाप्रविष्टा जाता: । प्राकारसंनिहितभूमेः कुम्भकर्ण - चरणयन्त्रितत्वेनावनमनात्समुद्रस्योन्नमनम् । तत एव तज्जलस्य नीचगामितया परिखायां संक्रम इति भावः । तथापि परिखाजलस्य जानुप्रमाणत्वमित्यस्य महत्त्व - मुक्तम् । किंभूताः । विपलायमानाः क्षोभादितस्ततो गामिनो मकरप्रग्राहा यत्र ते । प्रग्राहो जलसिंहः ।। १४॥ विमला - प्राकार लाँघ कर कुम्भकर्ण के चलने पर ( चरणभार से पृथिवी के दब जाने से ) समुद्र के एक भाग का जल उछल कर परिखा ( खाई ) में चला गया, मकर - जलसिंहादि जन्तु क्षुब्ध हो इधर-उधर भागने लगे । ( इस प्रकार परिखा के जल में वृद्धि होने पर भी ) वह कुम्भकर्ण के जानुपर्यन्त ही रहा || १४ || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738