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सेतुबन्धम्
[ पश्चदश
विमला - अकाल में जागने से उस ( कुम्भकर्ण ) का माथा भारी हो गया, अत एव जम्हाई लेता हुआ कुम्भकर्ण रामवध की एक छोटी ( किन्तु अभीष्ट ) बात सुन कर चिरकाल तक हँसा और तब ( युद्धार्थ ) निकला ||१२|| अथैतस्य देहमहत्त्वमाह
प्रोच्छुण्णरइरहवहो जाओ देहस्स से कण अपाआरो । ऊरुपएसालग्गो दरखलिओ व्व तवणिज्जराअपरिअरो ।। १३ ॥ [ आक्रान्तरविरथपथो जातो देहस्यास्य कनकप्राकारः । ऊरुप्रदेशालग्नो दरस्खलित इव तपनीयरागपरिकरः ॥ ]
अस्य कुम्भकर्णस्य देहस्य ऊरुप्रदेशालग्नः कनकप्राकारो दरस्खलितस्त्रिकरूपस्वस्थानात्किचिदधोपसृत ऊरुलग्नत्वात्तपनीयस्य सुवर्णस्य रागो रञ्जनं यत्र स सुवर्णघटितः परिकर इव जातः । परिकरो मेखलावत्त्रिके निबध्यत इति समाचारः । स तु सुप्तोत्थितस्य शिथिलीभवत्येवेति ध्वनिः । कीदृक्प्राकारः । आक्रान्तो रविरथस्य पन्था येन स तावदुच्च इत्युत्प्रेक्षा ॥ १३॥
विमला - रविरथ के पथ को आक्रान्त करने वाला कनकप्राकार, इस ( कुम्भकर्ण ) के देह के जांघ प्रदेश तक ही ( ऊँचा ) लगा, मानों वह उस ( कुम्भकर्ण ) का सुवर्णनिर्मित परिकर था, जो ( सोकर उठने पर ) अपने स्थान ( कटिप्रदेश ) से नीचे खिसक कर जाँघ पर रुक गया था ॥१३॥
अथास्य प्राकारलङ्घनमाह
लङ्घिअपाआरस्स अ तो से विवलाअमाणमअरप (क्क) ग्गाहा । जाणुष्पमाणसलिला जाओ फडिहागआ समुद्दद्धन्ता ॥ १४॥ [ लङ्घितप्राकारस्य च ततोऽस्य विपलायमानमकरप्रग्राहाः ॥ जानुप्रमाणसलिला जाताः परिखागताः समुद्रार्धान्ताः ॥ ]
ततः सांनिध्यानन्तरं लङ्घितप्राकारस्यास्य कुम्भकर्णस्य जानुदघ्नसलिलाः सन्तः समुद्र क देशाः परिखागताः परिखाप्रविष्टा जाता: । प्राकारसंनिहितभूमेः कुम्भकर्ण - चरणयन्त्रितत्वेनावनमनात्समुद्रस्योन्नमनम् । तत एव तज्जलस्य नीचगामितया परिखायां संक्रम इति भावः । तथापि परिखाजलस्य जानुप्रमाणत्वमित्यस्य महत्त्व - मुक्तम् । किंभूताः । विपलायमानाः क्षोभादितस्ततो गामिनो मकरप्रग्राहा यत्र ते । प्रग्राहो जलसिंहः ।। १४॥
विमला - प्राकार लाँघ कर कुम्भकर्ण के चलने पर ( चरणभार से पृथिवी के दब जाने से ) समुद्र के एक भाग का जल उछल कर परिखा ( खाई ) में चला गया, मकर - जलसिंहादि जन्तु क्षुब्ध हो इधर-उधर भागने लगे । ( इस प्रकार परिखा के जल में वृद्धि होने पर भी ) वह कुम्भकर्ण के जानुपर्यन्त ही रहा || १४ ||
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