Book Title: Setubandhmahakavyam
Author(s): Pravarsen, Ramnath Tripathi Shastri
Publisher: Krishnadas Academy Varanasi

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Page 626
________________ माश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [६०१ [ तथा प्रतिपन्नधनुःशरैः शरनिभिद्यमाननिश्चलभुजपरिघौ । दष्टौष्ठमात्रलक्षितनिष्फलरोषलघुको कृतौ रघुतनयौ ॥ ] रघुतनयो शरैनिभिद्यमानत्वा निश्चलौ भुजपरिघौ ययोस्तथाभूतौ कृतौ। इन्द्रजितेत्यर्थात् । किंभूतौ । तथा पूर्ववदेव प्रतिपन्नं धृतं धनुःशरं याभ्यां तो। करस्थितधनुःशरावित्यर्थः । एवमुत्तरौष्ठेन दष्टो योधरौष्ठस्तन्मात्रेण न तु व्यवसायेन लक्षितो ज्ञातोऽथ च निष्फल: प्रतिक्रिया विरहाद्यो रोषस्तेन हेतुना लघु अक्षमत्वेन ज्ञायमानावित्यर्थः ॥२६॥ विमला-उस समय राम और लक्ष्मण के परिघाकार भुजों को मेघनाद ने ( भुजङ्गरूप ) शरों से आवेष्टित कर निश्चल कर दिया, हाथ में धनुष-बाण ज्यों का त्यों रह गया । वे (प्रतिक्रिया न कर सकने के कारण ) निष्फल रोष से ओठ काटते, अतएव कुछ कर सकने में असमर्थ ज्ञात होते थे ॥२६॥ अथ शोणितनिर्गमनमाह-- सरणिभिण्णसरीरा जाआमालोअमग्गिअव्वावअवा। दरदिठ्ठपत्तणन्तरणिहित्तसंखाअलोहिया रहुतगआ॥२७॥ [ शरनिभिन्नशरीरी जातावालोकमागितव्यावयवी। दरदृष्टपत्रणान्तरनिहितसंस्श्यानलोहितौ रघुतनयो ।] शरैनिभिन्न शरीरौ रघुतनयो आलोकाय दर्शनाय मागितव्या अन्वेषणीया अवयवा ययोस्तौ जातौ। सर्पावृतत्वात् । आलोकेन दीपादिना तमःप्रागल्भ्यादिति केचित् । एवम्--किंचिद्दष्टं पत्रणा पुङ्खस्तदन्तरे तन्मध्ये निहितं स्थितं संस्त्यानं घनीभूतं लोहितं ययोस्तौ । क्षतादीषदवकाशे शरणागत्य पुङ्ख स्वल्पतया पतनाभावेन रुधिरं घनीभूतमित्यर्थः ॥२७॥ विमला-राम और लक्ष्मण का शरीर ( भुजङ्गरूप) शरों से आवेष्टित हो गया, अतएव कोई अवयव दृष्टिपथ में नहीं आता था। विद्धस्थान से थोड़ा-थोड़ा रुधिर बाणों से होता हुआ आकर पुच्छभाग में जमा हुआ दिखाई देता था ॥२७॥ अथ तयोर्जडीभावमाह-- सरसीविओरुजुपलं संकोलिमविहलणिच्चलअिचलणम् । णिअलिअदेहावअवं संचरिअव्वं पि रहुसुमाण अवहनम् ॥२८॥ [ शरस्यूतोरुयुगलं संकीलितविह्वलनिचलस्थितचरणम् । निगलितदेहावय संचरितव्यमपि रघुसुतयोरपहतम् ॥] ३६ से० ब० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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