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माश्वासः ]
रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम्
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फेंका, किन्तु बह नील के सम्मुख आकर तुरन्त ( ललाटभेदन न कर सकने से ) वञ्चित हो गया और ललाट से टकरा कर जहाँ से गया था वहीं को वापस आ रहा था कि नील ने सिंहनाद कर उसे बीच मार्ग में ही कूद कर हाथ से पकड़ लिया ॥८॥ अथ नीलेन शिलाग्रहणमाहगेण्हइ अ जलणतणो सुवेलसिहरद्धलग्गमेहच्छाअम् । विप्रडपहत्थोरत्थलसमबित्थारकढिणत्तणं कसणसिलम् ॥८२॥ [ गृह्णाति च ज्वलनतनयः सुवेलशिखराधलग्नमेघच्छायाम् ।
विकटप्रहस्तोरःस्थलसमविस्तारकठिनत्वां कृष्णशिलाम् ॥ ]
च पुनर्बलनतनयो नीलः कृष्णशिलां गृह्णाति । किंभूताम् । विकटं विस्तीर्ण यत्प्रहस्तस्योरःस्थलं तत्समे विस्तारकठिनत्वे यस्यास्तामिति तदभिभवसौकर्याय । एवम्-सुवेल शिखरस्यार्धान्ते उपरिदेशे लग्नस्य मेघस्येव छाया कान्तिर्यस्यास्तामिति । यथा सुवेलशिखरोपरिभागे मेघस्तिष्ठति तथा नीलहस्तोपरि शिलापीति सुवेलेन नीलस्य, शिखरेण भुजस्य, तदूर्ध्वभागेन करस्य, मेघेन' शिलायास्तुल्यत्वम् ।।८२॥
विमला-ज्वलनतनय ( नील ) ने प्रहस्त के विस्तीर्ण उरःस्थल के समान ही विस्तीर्ण एवं दृढ कृष्ण शिला ग्रहण की, जो सुवेल शिखर के ऊपरी भाग पर मेघ के समान, उसके हाथ में स्थित हुई ॥२॥ अथ नीलोत्फालमाहदूरसमुप्पइएण अ णीलेण सिलाअलोत्थ अम्मि विणपरे । जाओ णहम्मि दिअसो तक्खणबद्धतिमिरा महिनलम्मि णिसा॥८३॥ [ दूरसमुत्पतितेन च नीलेन' शिलातलावस्तृते दिनकरे ।
जातो नभसि दिवसस्तत्क्षणबद्धतिमिरा महीतले निशा ॥] दूरं समुत्पतितेन कृतोत्फालेन' च नीलेन दिनकरे शिलातलेनावस्तृते छन्ने सति नभसि दिवसो जातः, तत्क्षणे बद्धं संबद्धं तिमिरं यया सा निशा महीतले जातेत्यर्थात् । शिलया रविरश्मीनां व्यवहितत्वादधः प्रसरणाभावादत एवोध्वं प्रसरणादिवस इति भावः ॥३॥
विमला-नील ने ऊपर आकाश की ओर जो छलांग लगाई तो उस कृष्ण१. 'नीलस्य' इति भवेत् ।
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