Book Title: Setubandhmahakavyam
Author(s): Pravarsen, Ramnath Tripathi Shastri
Publisher: Krishnadas Academy Varanasi

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Page 605
________________ सेतुबन्धम् ८८ ] अथ पुनर्युद्धमाह 7 तो भङ्गलज्जिआणं परिवढिप्रपसरहरिसिआण अ गरुत्रम् । रअणिरवाणराणं वरिआनारिअभडं पवट्टइ जुज्झम् ॥८०॥ [ ततो भङ्गलज्जितानां परिवर्धित प्रसरहर्षितानां च गुरुकम् । रजनीचरवानराणां वृताकारितभटं प्रवर्तते युद्धम् ॥ ] ततस्तदनन्तरं भङ्गेन लज्जितानां रजनीचराणां परिवधितेन प्रसरेण हर्षितानां च वानराणां गुरुकं युद्धं प्रवर्तते । किंभूतम् । वृतोऽमुकेन समं मया योद्धव्यमिति स्वीकृतः सन्नाकारितो आहूतो भटो यत्र तदिति संप्रदायः । वस्तुतस्तु—भङ्गेन हेतुना मया पराजितमिति रक्षसा कातरेण समं मम युद्धमभूदिति कपीनां [च] लज्जेत्यर्थः । परावृत्तिलक्षणेन च परिवर्धितप्रसरेणोभयेषामपि हर्ष इत्युभयमप्यु - भयविशेषणमिति न द्वन्द्वानुपपत्तिरिति वयम् ||८०|| विमला - भागने से लज्जित वानरों तथा ( विजयी होने के कारण ) बढ़े हुये प्रसार के कारण हर्षित वानरों ने परस्पर अपना-अपना जोड़ा चुन कर उन्हें चुनौती दी और उनका महान् युद्ध पुनः प्रारम्भ हो गया ॥ ८० ॥ [ त्रयोदश अथ सुग्रीवप्रजङ्घयोर्द्वन्द्वयुद्धमाह सुग्गीवेण पअङ्को सत्तच्छअपाअवेण दिष्णरणसुहो । वणगदाण सुरहिणा वच्छुच्छ लिअकुसुमट्टहासेण हओ ||८१|| [ सुग्रीवेण प्रजङ्घः सप्तच्छदपादपेन दत्तरणसुखः । वनगजदानसुरभिणा वक्ष उच्छ्वलितकुसुमाट्टहासेन हतः ॥ ] सुग्रीवेण सेनामुखे पतितत्वाच्चिरं कृतयुद्धत्वाच्च दत्तरणसुखः प्रजङ्घो नाम राक्षसः सप्तच्छदपादपेन करणीभूतेन हतस्ताडितः । पादपेन किंभूतेन । वनगजानां सुरभिणा । एतेन मत्तगजगण्डकण्डूयन सहत्वेन महत्त्वमुक्तम् । दानवद्वा । एवम् - वक्षसः । प्रजङ्घस्येत्यर्थात् । वक्षसि उच्छ्वलितानि कुसुमान्येवाट्टहासो यस्य तेन । साधु ताडितोऽयं मत्प्रहारसहो न भवतीति वृक्षोपहासविषयोऽभूदित्युत्प्रेक्षा ॥ ८१ ॥ विमला — प्रजङ्घ नामक रजनीचर ने ( सामने आकर घोर युद्ध करने से ) रण का सुख दिया, किन्तु सुग्रीव ने वनगजों के ( कपोलघर्षण के कारण ) मदजल से सुरभित सप्तच्छद ( छतिवन ) वृक्ष से उसे प्रताड़ित कर गिरा दिया, उस समय प्रजङ्घ के वक्ष:स्थल पर गिरकर पड़े हुये फूलों से यह प्रतीत हुआ कि मानों वह वृक्ष ( अपना प्रहार प्रजङ्घ से सह्य न होने पर ) अट्टहास कर रहा था ॥ ८१ ॥ Jain Education International द्विविदाशनिप्रभयोस्तदाह दिविग्रहअस्स समरे सुरहि उरपडिअसरसचन्दणगन्धम् । असहिस्स जीअं अग्धा अन्तसु हिओणि मिल्लस्स गनम् ॥ ६२ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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