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माश्वासः ]
रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम्
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विमला-जैसे गेरू के घोल से लाल नदी का तट, नूतन (बाढ़ के ) मटमैले जल से मूल भाग में आहत हो नष्ट-भ्रष्ट होता है वैसे ही अरुणोदय से लाल रजनी का अन्तिम भाग मटमैली (धूसर ) चन्द्रिका से आदृत (स्पृष्ट ) हो नष्ट होने लगा ॥२॥ अथ वृक्षच्छायानां दुर्लक्ष्यत्वमाहणिव्वणिज्जइ रूअं अरुणसिहोलग्गचन्दिमम्मि महिमले। ओन्वत्तधूसराणं गवर चलन्तीण पाप्रवच्छाआणम् ॥३॥ [ निर्वर्ण्यते रूपमरुण शिखावरुग्णचन्द्रिके महीतले ।
अपवृत्तधूसराणां केवलं चलन्तीनां पादपच्छायानाम् ॥]
अरुणशिखाभिरवरुग्णा मृष्टा चन्द्रिका यत्र तत्र महीतले केवलं चलन्तीनामेव पादपच्छायानां रूपं स्वरूपं निर्वर्ण्यते लक्ष्यते न तु स्थिराणामित्यर्थः । किंभूतानाम् । अपवृत्तानामपगतानाम् । अत एव नीलिमापगमाद्धूसराणाम् । अरुणचन्द्रिकयोरेकतरप्रागल्भ्याभावाच्छाया विविच्य न गृह्यन्ते किंतु पवनान्दोलितशाखावशतया चलनादीषदाकारतया च लक्ष्यन्त इति भावः ॥३॥
विमला-महीतल पर लाली से चन्द्रिका का स्पर्श होने के कारण वृक्षों की छाया अपगत ( नीलापन से रहित ) अतएव धूसर हो गयी। (वायुवेगवश ) शाखाओं के डोलने से छाया भी चञ्चल हो जाती है, इसी से पता लगता है कि यह वृक्ष की छाया है ( अन्यथा स्थैर्य दशा में यह समझना कठिन हो जाता है कि यह छाया है) ॥३॥ प्राभातिक रूपमाह
संमोल इ कुमुअवणं अद्धथमिप्रगलिअप्पहं ससिबिम्बम् । विमलइ रअणिच्छाआ अरुणाहअमुद्धारा पुवदिसा ॥४॥ [ संमीलति कुमुदवनमर्धास्तमितगलितप्रभं शशिबिम्बम् ।
विगलति रजनीच्छायारुणाहतमुग्धतारका पूर्वदिक् ॥]
कुमुदवनं संकुचति, शशिबिम्बमर्धास्तमितत्वाद्गलितप्रभमनुज्ज्वलम् । भवतीत्यर्थात् । रजन्याश्छाया कान्तिविगलति प्रभातवशात् । अरुणेनारुणकान्त्याहता स्पृष्टा अत एव मुग्धा मन्दा: क्षुद्रा वा तारका यत्र तादृशी पूर्वदिक् । भवतीत्यर्थः ॥४॥
विमला-कुमुदवन मुद्रित हो गया, चन्द्रमा आधा डूब गया, अतएव उज्ज्वल नहीं रहा, रजनी की कान्ति नष्ट हो गयी तथा पूर्व दिशा में अरुणकान्ति के स्पर्श से तारे मन्द पड़ गये ॥४॥
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