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सेतुबन्धम्
[द्वादश
को अतिक्रान्त करने के लिये ( सारथि के रोकने पर भी ) उधर ही मुड़ जाते थे तथा ( चिरकाल से रथ में जोते जाने से ) उनके केसर ( गरदन के बाल ) रथ के जुए की रगड़ खाते-खाते झड़ गये थे ।।८२॥ अथ प्रजङ्घस्य प्रयाणमाहकर वि पडिबद्धकवओ ममरासङ्घिअसमत्थवाणरलोओ। णीइ घण कोडिताडगत रविप्रतुरङ्गमो रहेण पअञ्जो ॥३॥ [ कथमपि प्रतिबद्धकवचः समराध्यवसितसमस्तवानरलोकः ।
निरैति धनुष्कोटिताडनत्वरिततुरङ्गमो रथेन प्रजङ्घः ॥] प्रजङ्घनामा राक्षसो रथेन निरैति । कीदृक् । कथमपि त्वरया यथा तथा प्रतिबद्धः कवचो येन । एवम्-समरेऽध्यवसितः सर्वैः सह मयैव योद्धव्य मिति स्थिरीकृतः समस्तवानरलोको येन । तथा धनुष्कोटया ताडनेन प्रेरणया त्वरी कारितास्तुरङ्गमा येनेति युद्धोत्साहः सूचितः ।।८३।।।
विमला-प्रजङ्घनामक राक्षस समस्त वानरों से अकेला ही लड़ने का निश्चय कर शीघ्रता में ज्यों-त्यों कवच धारण कर रथ पर सवार हुआ और धनुष के अप्रभाग से कोंच-कोंच कर घोड़ों को तेज करता चल पड़ा ॥८३।। अथेन्द्रजिनिर्गमनमाह
चडलवडाआणिवहो कञ्चणधर भितिविअडकवर बन्धो। इन्ट इणो वि पसरिओ एक्कुद्देसो व्य रक्खल उराश रहो।।८४॥ [चटुलपताकानिवहः काञ्चनगृहभित्तिविकटकूबरबन्धः ।
इन्द्रजितोऽपि प्रसृत एकोद्देश इव राक्षसपुर्या रथः ॥]
इन्द्रजितोऽपि रथः प्रसृतश्च लितः । कीदृक् । चटुलश्चञ्चल: पताकानिवहो यत्र ! काञ्चनगुहभित्तिव द्वि कटो विस्तीर्णः कूबरस्य बन्धो विन्यासो यत्र । क इव । राक्षसपुर्या लङ्काया एक उद्देशः प्रदेश इव चलित इत्युत्प्रेक्षा। तत्रापि पताकानां कनकगृहभित्तीनां च सत्त्वादिति भावः । 'कूबरस्तु युगंधरः' ।।४।।
विमला-~-इन्द्रजीत का रथ भी चल पड़ा, जिस पर पताकायें फहरा रही थीं तथा जिसमें काञ्चनगृह की दीवार के समान विस्तीर्ण कूबर ( रथ के अगले भाग की वह लम्बी निकली हुई लकड़ी, जिसमें जुआ अटकाया जाता है ) विन्यस्त था, अतएव जो लङ्कापुरी का एक प्रदेश-सा लग रहा था ॥४॥ एतस्य तुरङ्गानाह
खणपरिअत्तमिइन्दा खणलक्खि अकुञ्जरा खणन्तरमाहिसा । तस्स खणमेत्तमेहा रहं वहन्ति खणपव्वा अ तुरङ्गा ।।८।।
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