________________
आश्वासः ] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम्
[५४१ विमला-जो वानर अब भी परिखा के पास ही रह गये थे, उन्होंने द्वितीय समुद्र-सी गहरी परिखा पर पर्वतों से दूसरा सेतुपथ बना कर द्वितीय सुवेल-सा प्राकार लाँघना आरम्भ कर दिया ॥८॥ अथ रक्षोबलप्रयाणमाहणवरि अ मुक्ककलअलं वाणरतुलिअम्मि दहमुहाहिठाणे । चलि रअणि अरबलं खअग्गिविहुए व महिअले उअहिजलम् ॥८॥ [ अनन्तरं च मुक्तकलकलं वानरतुलिते दशमुखाधिष्ठाने ।
चलितं रजनीचरबलं क्षयाग्निविधुत इव महीतल उदधिजलम् ॥] प्राकारातिक्रमानन्तरं रजनीचराणां बलं मुक्तकलकलं सच्च नितम् । युद्धायेत्यर्थात् । क्व सति । दशमुखस्याधिष्ठाने पुरे वानरस्तुलिते आक्रान्ते सति । एतदुपरिस्थातुं न युक्तमित्याशयात् । किमिव । उदधिजल मिव । यथा क्षयः प्रलयस्तत्कालीनाग्निभिर्विधुते व्याप्य व्याकुलीकृते महीतले तन्निर्वापणाय समुद्रजलं चलतीति क पिशत्वेन वह्निक पिसैन्ययोः, श्यामत्वेन जलधिजलरावणबलयोः, महत्त्वेन च लङ्कामहीतलयोस्तौल्यम् ।।८१॥
विमला-प्राकार लाँघने के अनन्तर वानरों ने जब दशानन के पुर को आक्रान्त कर लिया तब ( अब ठहरना युक्त नहीं है, ऐसा सोचकर ) राक्षसों की सेना ( युद्ध के लिये ) उसी प्रकार कलकल करती चल पड़ी, जिस प्रकार प्रलयकालीन अनल से भूतल के व्याकुल होने पर उसे बुझाने के लिये समुद्र का जल चलता है ॥८१॥ अथ निकुम्भस्य प्रयाणमाह__ आरूढो णीइ रहं आसण्णगइन्दलङ्गणवलन्तेहि।
सरहेहि समरतुलिनो जुत्तं जुप्रभग्गकेसरेहि णि उम्भो ।।२।। [ आरूढो निरैति रथमासन्नगजेन्द्रलङ्घनबलमानैः ।
शरभैः समरत्वरितो युक्तं युगभग्नकेसरैनिकुम्भः ॥] समराय त्वरितो निकुम्भः शरभैरष्टापदैर्युक्तं रथमारूढः सन्निरै ति निर्गच्छति । किंभूतैः । आसन्नाः पुरोवर्तिनो ये गजेन्द्रास्तल्लङ्घनाय बलमानैः सारथिना प्रतिरोधात्तिर्यग्भवद्भिः। सिंहाभिभावकत्वेन हस्तिलङ्घनसमर्थत्वात् । एवं युगेन स्कन्धवर्ति काष्ठविशेषेण संघर्षणाद्भग्नाः केसरा येषां तैरित्यभ्यासतः सुशिक्षितत्वमुक्तम् ।।२।।
विमला-समर के लिये उतावला निकुम्भ (कुम्भकर्ण का पूत्र ) शरभों (आठ पैर वाला जन्तुविशेष, जिसे सिंह से भी बलवान और मजबूत बताया गया है ) से युक्त रथ पर आरूढ हो निकल पड़ा। वे शरभ निकटस्थ गजेन्द्रों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org