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आश्वासः] रामसेतुप्रदीप-विमलासमन्वितम् [ ५३६ चरणचिह्नानि कपिभिविलुलितानीति तत्प्रदेशगमनेन कपीनामतिप्रसरः सूचित इति वा ।।७६॥
विमला-बहुत पहले ( लंकावरोध के समय ) समर में ( पुरद्वार से ही । भागे हुये इन्द्र के चरणचिह्न, जिन्हें ( सब के देखने के लिये ) चिरकाल से रावण ने सुरक्षित रखा था, पुरद्वार को विनष्ट कर अपने चरणों से केवल वानरों ने ही मिटाया ॥७६॥ अथ परिखाजलक्षोभमाहजात्रा णिमा अरपुरी पाआरब्भन्तरावसेसध अधडा। खणावाणरसंवेल्लिअफलिहाविज्झविअरक्खसेन्दपआवा ॥७७॥ [ जाता निशाचरपुरी प्राकाराभ्यन्तरावशेषध्वजपटा।
क्षणवानरसंवेल्लितपरिखाविध्मापितराक्षसेन्द्रप्रतापा ।।]
राक्षसपुरी जाता । कीदृशी। प्राकाराभ्यन्तरेऽवशेषा अवशिष्टा ध्वजपटा यस्यां तथा सा। गोपुरासन्नध्वजपटानां कपिभिरपनीतत्वादिति भावः । एवम्-क्षणं व्याप्य वानरैः संवेल्लिताभिश्च क्रमाच्चञ्चलीकृताभिः परिखाभिविध्मापितो निर्वापितः । प्रशमं नीत इति यावत् । राक्षसेन्द्रस्य प्रतापो यत्र । तथा च बहिस्तातापरूपो वह्निर्नास्तीति तत्प्रशमे विक्षोभितपरिखाजलप्रसरणहेतुकत्वमुत्प्रेक्षितम्, अन्योऽपि वह्निर्जलेन शाम्यतीति ध्व निस्तेन प्राकाराभ्यन्तरमात्रपर्यवसायी रावणप्रतापः स्थित इति तात्पर्यम् ॥७॥
विमला-लङ्का में अब प्राकार के भीतर ही ( रावण के प्रतापसूचक ) ध्वजपट अवशिष्ट रह गये, बाहर ( पुरद्वार को नष्ट-भ्रष्ट करते समय ध्वजपट विनष्ट ही हो चुके थे ) रावण का प्रताप भी नहीं रह गया, क्योंकि क्षण भर वानरों से चञ्चल किये गये खाइयों के जल से वह बुझा दिया गया ॥७७।। अथ परिखावेष्टनमाहविअडगिरिऊडसंणिहणिरन्तरासण्णवाणरपरिक्खित्ता । जाआ पाप्रारोहअमझक डफडिह व्व खसणअरी ॥७८॥
[ विकटगिरिकूटसंनिभनिरन्तरासन्नवानरपरिक्षिप्ता ।
जाता प्राकारोभयमध्यव्यूढपरिखेव राक्षसनगरी ॥] विकटानि यानि गिरीणां कूटानि शृङ्गाणि तत्संनिभैस्तत्तुल्यै निरन्तरमासन्नैमिलितर्वानरैः परिक्षिप्ता वेष्टिता राक्षसनगरी प्राकारद्वयमध्ये व्यूढोपचिता परिखा यस्यास्तादृशीव जाता। परिखाया एक: प्राकारः स्थित एव, अपरः परदिशि मण्डलाकारः स्थितः कपिव्यूह एवाभूदित्युत्प्रेक्षा। तथा चोक्त रघौ–'द्वितीयं हेमप्राकारं कुर्वद्भिरिव वानरैः' इति ।।७८।।
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