Book Title: Setubandhmahakavyam
Author(s): Pravarsen, Ramnath Tripathi Shastri
Publisher: Krishnadas Academy Varanasi

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Page 471
________________ ४५४ ] सेतुबन्धम् [एकादश [ ततोऽमर्षमेलितभ्रू ग्राहिततरङ्गितललाटतटम् । छिन्नानीतमिव तदैव तदेव तैनिर्मितं रामशिरः ।।] ततस्तदाज्ञानन्तरं तैः सेवकैस्तदैव तत्क्षण एव तदेव साक्षादेव न तु कृतकत्वेन ज्ञाप्यमानम्, रामशिरश्छिन्नानीतमिव छिन्नं सद्यस्तदानीतं तदिव निर्मितम् । कीदशम् । अमर्षेण मेलिताभ्यामेकीभूताभ्यां भ्र भ्यामुग्राहितमुत्क्षिप्तम् । अत एव तरङ्गितं सभृकुटीकं ललाटतटं यत्र । तथा च युद्धकालीनावस्थाविशिष्टत्वेन पारमाथिकमेव तदिति घटनायवमुक्तम् ॥३६॥ विमला-रावण की आज्ञा के अनन्तर सेवकों ने तत्क्षण ही वैसा ही राम का सिर माया से निर्मित कर दिया, जो युद्धकालीनावस्था में अवस्थित-सा होने के कारण कृत्रिम नहीं ज्ञात होता था और यही ज्ञात होता था कि युद्ध करते समय यह काट कर लाया गया है । अमर्ष से उनकी दोनों भौंहें मिलकर एक हो गयी थीं तथा भ्रुकुटीसहित ललाट प्रदेश तना हुआ था ॥३६।। अथ सेवकानां प्रस्थानमाहसंपत्थिा असंभमचलणोवडणविसमुठ्ठिमा पमअवणम् । कह वि समत्तप्पाहिदशवअणाणत्तिवावडा रअणिपरा ॥३७॥ [संप्रस्थिताश्च संभ्रमचरणावपतनविषमोत्थिताः प्रमदवनम् । । कथमपि समस्ताध्यापितदशवदनाज्ञप्तिव्यापृता रजनीचराः ।।] रजनीचराः प्रमदवनं सीतावस्थितिवनं प्राप्ताश्च । किंभूताः । संभ्रमेण भयेनादरेण वा यच्चरणयोरवपतनं त्वरया विन्यासस्तस्मै विषमं युगपदुत्थितास्त्वरया मन्तु सत्वरमुत्थिता इत्यर्थः । यद्वा--चरणयोरवपतनेनाधो विन्यास विशेषेण विषममुत्थिता इत्यर्थः । कथमपि लज्जानिबन्धनकष्टेन समस्तमध्यापिता । यथा रामशिरः श्रद्धत्ते मां च स्वीकरोति सा, तथा कर्तव्यमित्याधुपदिष्टाः सन्तो दशवदनाज्ञप्ती मायायां मस्तकोपनयनरूपायां व्याप्ताः सयत्नाः । यद्वा--समस्तं यदध्यापितमुपदिष्टरूपं वस्तु तदेव दशवदनाज्ञप्तिस्तत्र व्यापृता इत्यर्थः ॥३७॥ विमला-रावण ने राक्षसों को किसी प्रकार से यह बताया कि ऐसा करना कि जिससे सीता को विश्वास हो जाय कि यह राम का ही सिर है (कृत्रिम नहीं) तथा वह मुझ ( रावण ) को स्वीकार कर ले । रावण की आज्ञा का पालन करने के लिये प्रयत्नशील निशाचर रावण के चरणों में सिर झुका कर जल्दी जाने के लिये उठ खड़े हो गये और प्रमदवन की ओर चल पड़े ॥३७॥ अथ प्रमदवनप्राप्तिमाह पत्ता अ फडिप्रमणिअडविवरुट्ठिअसलिलबद्धपकअमउलम् । पवणसुअभग्गपावभगुग्गनबालकिसल पमप्रवणम् ॥३८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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