________________
४१८] सेतुबन्धम्
[दशम रित्यर्थात् । क्वचित्क्वचिदवस्थिता शाखापत्रादिच्छाया विवरबुद्धि जनयतीत्यर्थः । 'दशेन्धनो गृहमणिः स्नेहाशः कज्जलध्वजः' इति हारावलिः ।।५३।।
विमला-( घर में ) दीपों की किरणों से मिलकर ज्योत्स्ना की कान्ति (पीत एवं धवल होने से ) सलिलसिक्त चन्दनरस की कान्ति के समान हो रही है तथा ( बाहर ) ज्योत्स्ना में कहीं-कहीं ( शाखाओं एवं पत्तों आदि की छाया के रूप में ) विपर्यस्त स्थित तम, विवर की भ्रान्ति पैदा करता है ॥५२॥ अथ ताराणां तानवमाहविअलिअणिअअच्छाअं जाअं जोलापरिप्पवन्तमिअङ्कम् ।। विच्छूढव्वमऊहं अविभाविअसतारअं गगण मलम् ।। ५३ ।। [विगलितनिजकच्छायं जातं ज्योत्स्नापरिप्लवमानमृगाङ्कम् । विक्षेप्तव्यमयूखमविभावितश्लक्ष्णतारकं गगनतलम् ॥]
गगनतलं जातम् । कीदृशम् । विगलिता अपगता निजकच्छाया श्यामरूपता यत्र, ज्योत्स्नाबाहुल्यात् । एवं ज्योत्स्नासु परिप्लवमान इव तरन्निव मृगाङ्को यत्र, जले फेनवत्संचारशीलत्वात् । एवं विक्षेप्तव्या हस्तादिस्फेटनीया मयूखाश्चन्द्रकान्तयो यत्र, घनीभूतत्वात् । अत एव अविभाविताः अलक्षिता: श्लक्ष्णाश्चन्द्रालोकेनाभिभूतत्वात्कृशास्तारका यत्र तथाभूतम् ॥५३॥
विमला-आकाश में (ज्योत्स्ना के आधिक्य से ) उसकी अपनी श्यामरूपता विनष्ट हो गयी है। चन्द्रमा ज्योत्स्ना में तैर-सा रहा है तथा चन्द्र की किरणें ( घनीभूत होने के कारण ) हाथ आदि से इधर-उधर फेंकी जा सकती हैं, अतएव (चन्द्रालोक से अभिभूत होने के कारण ) कृश तारागण अलक्षित हो रहे हैं ॥५३।। पर्वतावस्थामाह - णिव्वडिअतुङ्गसिहरा धवला वीसन्ति दिमहिअलबन्धा । णहमज्झठ्ठि अससहरवोच्छिण्णच्छाहिमण्डला धरणिहरा ॥५४॥ [निर्वलिततुङ्गशिखरा धवला दृश्यन्ते दृष्टमहीतलबन्धाः ।
नभोमध्यस्थितशशधरव्यवच्छिन्नच्छायामण्डला धरणीधराः ।।]
धरणीधरा धवला दृश्यन्ते, ज्योत्स्नाबाहुल्यात् । कीदृशाः । निर्वलितानि पृथग्भूतानि तुङ्गानि शिखराणि येषाम् । एवं दृष्टो महीतले बन्धः संधिर्येषाम् । एवं नमोमध्यस्थितेन शशधरेण व्यवच्छिन्नोऽपनीतश्छायामण्डलो येषां ते। चन्द्रस्योपरिस्थित्या तल एव छायाव्यवस्थितिरिति भावः ।।५४।।
विमला-( ज्योत्स्ना के आधिक्य से ) पृथग्भूत तुङ्गशिखरों वाले पर्वत धवल दिखायी दे रहे हैं, भूतल पर उनकी सन्धि दीख पड़ रही है तथा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org